18.2.17

लाजवंती (छुई मुई ) के आयुर्वेदिक और औषधीय गुण



  


  छुई मुई पौधे के घरेलु नुस्खे

छुई मुई का पौधा अपने आप में थोडा अजीब तरह का पौधा है साथ ही छुई मुई का दूसरा नाम लाजवंती भी है. इसके इन दोनों नामों के पीछे भी कारण है, जैसे ही हम इस पौधे को छूते हैं ये खुद को सिकोड़कर छोटे रूप में बदल जाता है. उस समय ऐसा प्रतीत होता है मानो ये हमसे शर्मा रहा होऔर यही कारण है कि इसका नाम लाजवंती पड़ा. छुई मुई का वानस्पतिक नाम माईमोसा पुदिका भी है जबकि देसी नाम लजोली भी है. इसके फूल गुलाबी रंग के होते हैं, जो देखने में बहुत आकर्षक और सुन्दर प्रतीत होते हैं.
   लाजवंती नमी वाले स्थानों में ज्यादा पायी जाती है इसके छोटे पौधे में अनेक शाखाएं होती है। इसका वानस्पतिक नाम माईमोसा पुदिका है। संपूर्ण भारत में होने वाला यह पौधा अनेक रोगों के निवारण के लिए उपयोग में लाया जाता है। इनके पत्ते को छूने पर ये सिकुड़ कर आपस में सट जाती है। इस कारण इसी लजौली नाम से जाना जाता है इसके फूल गुलाबी रंग के होते हैं । लाजवंती का पौधा एक विशेष पौधा है। इसके गुलाबी फूल बहुत सुन्दर लगते हैं और पत्ते तो छूते ही मुरझा जाते हैं। इसे छुईमुई भी कहते हैं।


पेशाब की समस्यायें रखें दूर - 

यदि किसी को अधिक पेशाब आने की समस्या है तो छुई मुई के पत्तों को सबसे पहले पानी में पिस लें और एक लेप तैयार करें. अब इस लेप को नाभि के निचले हिस्से लगाएं, इससे बार बार पेशाब आने की समस्या में शीघ्र आराम मिलता है.
*लाजवंती के पत्तों को पानी में पीसकर नाभि के निचले हिस्से में लेप करने से पेशाब का अधिक आना बंद हो जाता है। पत्तियों के रस की 4 चम्मच मात्रा दिन में एक बार लेने से भी फायदा होता है।
*लाजवंती की जड़ और पत्तों का पाउडर दूध में मिलाकर दो बार लेने से बवासीर और भगंदर रोग ठीक होता है। *पत्तियों के रस को बवासीर के घाव पर सीधे लगाने से घाव जल्दी सुख जाता है और अक्सर होने वाले खून के बहाव को रोकने में भी मदद करता है।
*लाजवंती की जड़ों का चूर्ण (3 ग्राम) दही के साथ खूनी दस्त में जड़ों का पानी में तैयार काढ़ा भी खूनी दस्त रोकने में कारगर होता है।
*लाजवंती के पत्तों का 1 चम्मच पाउडर मक्खन के साथ मिलाकर भगंदर और बवासीर होने पर घाव पर रोज सुबह-शाम या दिन में 3 बार लगाने से ठीक हो जाता है |
*यदि लाजवंती की 100 ग्राम पत्तियों को 300 मिली पानी में डालकर काढ़ा बनाया जाए और इसे डायबिटीज रोगी को दिया जाए तो डायबिटीज में काफी फायदा होता है।

*खुनी दस्त में आराम 

यदि कोई खुनी दस्त से ग्रस्त है तो छुई मुई की जड़ों का चूर्ण बना लें, 3 ग्राम चूर्ण को दही के साथ खाने से खुनी दस्त जल्दी बंद हो जाता है.
लाजवंती की जड़ों और बीजों का चूर्ण दूध के साथ लेने से पुरुषों में वीर्य की कमी की शिकायत में काफी हद तक फायदा होता है। इसकी जड़ों और बीजों का चूर्ण दूध के साथ लेने से पुरुषों में वीर्य की कमी की शिकायत में काफी हद तक फायदा होता है। इसकी जड़ों और बीजों के चूर्ण की 4 ग्राम मात्रा हर रात एक गिलास दूध के साथ एक माह तक लगातार ले।
*अगर diabetes है तो इसका 5 ग्राम पंचांग का पावडर सवेरे लें .
*पथरी किसी भी तरह की है तो , इसके 5 ग्राम पंचांग का काढ़ा पीएँ .

*चर्म रोगों में राहत ( Cures Skin Diseases ) : 

आधुनिक विज्ञान ने भी ये माना है कि त्वचा संक्रमण हो जाने पर छुई मुई के रस को दिन में 3 बार त्वचा पर लगाने से आराम मिलता है.

*पेशाब रुक – रुक कर आता है

या कहीं पर भी सूजन या गाँठ है तो इसके 5 ग्राम पंचांग का काढ़ा पीएँ
लाजवंती और अश्वगंधा की जड़ों की समान मात्रा लेकर पीस लिया जाए और तैयार लेप को ढीले स्तनों पर हल्के-हल्के मालिश किया जाए तो धीरे-धीरे ढीलापन दूर होता है।
लाजवंती के बीजों के चूर्ण (3 ग्राम) को दूध के साथ मिलाकर रोजाना रात को सोने से पहले लिया जाए तो शारीरिक दुर्बलता दूर हो जाती है।

काली मिर्च के फायदे

*स्तनों का ढीलापन दूर करे ( Removes Breasts Sagginess ) :

 यदि स्त्रियों के स्तनों के ढीलेपन की समस्या है तो छुई मुई की जड़ों और अश्वगंधा की जड़ों की समान मात्रा लेकर अच्छे से मिलाकर पीस लें और पानी के साथ लेप बना लें. रोजाना दिन में दो बार लेप को ढीले स्तनों पर हल्के - हल्के मालिश करें, स्तनों का ढीलापन दूर हो जायेगा.
*हड्डियों के टूटने और मांस-पेशियों के आंतरिक घावों के उपचार में लाजवंती की जड़ें काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। घावों को जल्दी ठीक करने में इसकी जड़ें सक्रियता से कार्य करती हैं।

गले के रोग ( Treat Goiter ) :

 जिन्हें गोईटर की समस्या हो उनको छुई मुई की पत्तियों को पीसकर रोजाना दिन में दो बार लगाएं समस्या से तुरंत आराम मिलेगा.*स्तन में गाँठ या कैंसर की सम्भावना हो तो ,
 लाजवंती की जड़ और अश्वगंधा की जड़ घिसकर लगाएँ .

हड्डियों को मजबूती दे ( Strengthen Bones ) :

 छुई मुई हड्डियों के टूटने और मांसपेशियों के आंतरिक घावों को जल्द ही ठीक करता है.

स्वप्न दोष के  अचूक उपचार 

*अगर खांसी हो तो लाजवंती के जड़ के टुकड़ों के माला बना कर गले में पहन लो . हैरानी की बात है कि जड़ के टुकड़े त्वचा को छूते रहें ; बस इतने भर से गला ठीक हो जाता है . इसके अलावा इसकी जड़ घिसकर शहद में मिलाये . इसको चाटने से , या फिर वैसे ही इसकी जड़ चूसने से खांसी ठीक होती है . इसकी पत्तियां चबाने से भी गले में आराम आता है .

*टोंसील ( Tonsil ) : 

यदि किसी के टांसिल्स बढ़ गए हों तो छुई मुई की पत्तियों को पीसकर रोजाना दिन में दो बार लगाएं समस्या से तुरंत आराम मिलेगा.
*लाजवंती का मुख्य गुण संकोचन का है . इसलिए अगर कहीं भी मांस का ढीलापन है तो , इसकी जड़ का गाढ़ा सा काढा बनाकर वैसलीन में मिला लें और मालिश करें . anus बाहर आता है तो toilet के बाद मालिश करें .
uterus बाहर आता है तो, पत्तियां पीसकर रुई से उस स्थान को धोएँ .
नपुंसकता दूर करे ( Removes Impotency )
:
 नपुंसकता को दूर करने के लिए तीन से चार इलायची, छुई मुई की 2 ग्राम जड़, सेमल की 3 ग्राम छाल को आपस में अच्छे सेमिलकर कुचल लिया जाये और रोजाना एक गिलास दूध में मिलाकर रात को सोने से पहले पिया जाये तो आपको हो रही नपुंसकता को दूर किया जा सकता है.
*hydrocele की समस्या हो या सूजन हो तो पत्तोयों को उबालकर सेक करें या पत्तियां पीसकर लेप करें .
हृदय या kidney बढ़ गए हैं, उन्हें shrink करना है , तो इस पौधे को पूरा सुखाकर , इसके पाँचों अंगों ((फूल, पत्ते, छाल, बीज और जड़) ) का 5 ग्राम 400 ग्राम पानी में उबालें . जब रह जाए एक चोथाई, तो सवेरे खाली पेट पी लें .
*यदि bleeding हो रही है piles की या periods की या फिर दस्तों की , तो इसकी 3-4 ग्राम जड़ पीसकर उसे दही में मिलाकर प्रात:काल ले लें ,या इसके पांच ग्राम पंचांग का काढ़ा पीएँ.

किडनी रोगों से निवारण ( Removes Kidney Problems ) : 

किडनी में किसी तरह की समस्या होने पर आपको सबसे पहले इसका पूरा पौधा सुखाना है फिर इसके पाँचों अंगों को जोकि फूल, पत्ते, छाल, बीज और जड़ को 5 ग्राम की मात्रा में लेकर 400 ग्राम पानी मेंतब तक उबालें जब तक पानी ¼ ना रह जाये, अब इसे रोज सवेरे खली पेट पी लें, आपको निश्चित लाभ मिलेगा.
*Goitre की या tonsil की परेशानी हो तो , इसकी पत्तियों को पीसकर गले पर लेप करें .
*Uterus में कोई विकार है तो , इसके एक ग्राम बीज सवेरे खाली पेट लें
 .
    



तुरई(नेनुया) के औषधीय गुण,फायदे ,उपयोग




     तुरई या तोरी एक सब्जी है जिसे लगभग संपूर्ण भारत में उगाया जाता है। तुरई का वानस्पतिक नाम लुफ़्फ़ा एक्युटेंगुला है। तुरई को आदिवासी विभिन्न रोगों के उपचार के लिए उपयोग में लाते हैं। मध्यभारत के आदिवासी इसे सब्जी के तौर पर बड़े चाव से खाते हैं और हर्बल जानकार इसे कई नुस्खों में इस्तमाल भी करते हैं। चलिए आज जानते हैं ऐसे ही कुछ रोचक हर्बल नुस्खों के बारे में।
*आधा किलो तुरई को बारीक काटकर 2 लीटर पानी में उबाल लिया जाए और छान लिया जाए। प्राप्त पानी में बैंगन को पका लें। बैंगन पक जाने के बाद इसे घी में भूनकर गुड़ के साथ खाने से बवासीर में बने दर्द तथा पीड़ा युक्त मस्से झड़ जाते हैं।

*लिवर के लिए गुणकारी

आदिवासी जानकारी के अनुसार लगातार तुरई का सेवन करना सेहत के लिए बेहद हितकर होता है। तुरई रक्त शुद्धिकरण के लिए बहुत उपयोगी माना जाता है। साथ ही यह लिवर के लिए भी गुणकारी होता है।

दाद, खाज और खुजली से राहत

*तुरई के पत्तों और बीजों को पानी में पीसकर त्वचा पर लगाने से दाद, खाज और खुजली जैसे रोगों में आराम मिलता है। वैसे ये कुष्ठ रोगों में भी हितकारी होता है।



* पेट दर्द दूर होता है


अपचन और पेट की समस्याओं के लिए तुरई की सब्जी बेहद कारगर इलाज है। डांगी आदिवासियों के अनुसार अधपकी सब्जी पेट दर्द दूर कर देती है।
*तोरई पेशाब की जलन और पेशाब की बिमारी दूर करने में लाभकारी है |

* डायबिटीज़ में फायदा

तुरई में इंसुलिन की तरह पेप्टाइड्स पाए जाते हैं। इसलिए सब्ज़ी के तौर पर इसके इस्तेमाल से डायबिटीज़ में फायदा होता है।

पथरी में आराम

तुरई की बेल को दूध या पानी में घिसकर 5 दिनों तक सुबह शाम पिया जाए, तो पथरी में आराम मिलता है। 

पीलिया समाप्त हो जाता है

पीलिया होने पर तोरई के फल का रस यदि रोगी की नाक में दो से तीन बूंद डाला जाए तो नाक से पीले रंग का द्रव बाहर निकलता है और आदिवासी मानते है कि इससे अतिशीघ्र पीलिया रोग समाप्त हो जाता है।



*तुरई के पत्तों और बीजों को पानी में पीसकर त्वचा पर लगाने से दाद-खाज और खुजली जैसे रोगों में आराम मिलता है, वैसे ये कुष्ठ रोगों में भी हितकारी होता है।

*तोरई के सेवन से घुटनों के दर्द में आराम मिलता है |

*बाल काले करने के लिए

पातालकोट के आदिवासियों के अनुसार तुरई के छोटे-छोटे टुकड़े काटकर छांव में सूखा लें। फिर इन सूखे टुकड़ों को नारियल के तेल में मिलाकर 5 दिन तक रख लें। बाद में इसे गर्म कर लें। इस तेल को छानकर प्रतिदिन बालों पर लगाएं और मालिश करें, इससे बाल काले हो जाते हैं।
*तुरई की बेल को दूध या पानी में घिसकर 5 दिनों तक सुबह शाम पिया जाए तो पथरी में आराम मिलता है।
*तोरई के पत्तों को पीस लें | यह लेप कुष्ठ पर लगाने से लाभ मिलता है |

* मस्से झड़ते हैं


आधा किलो तुरई को बारीक काटकर 2 लीटर पानी में उबालकर, इसे छान लें। फिर प्राप्त पानी में बैंगन को पका लें। बैंगन पक जाने के बाद इसे घी में भूनकर गुड़ के साथ खाने से बवासीर में बने दर्द और पीड़ा युक्त मस्से झड़ जाते हैं।
विशिष्ट परामर्श-


पथरी के भयंकर दर्द को तुरंत समाप्त करने मे यह हर्बल औषधि सर्वाधिक कारगर साबित होती है,जो पथरी- पीड़ा बड़े अस्पतालों के महंगे इलाज से भी बमुश्किल काबू मे आती है इस औषधि की 2-3 खुराक से आराम लग जाता है| वैध्य श्री दामोदर 
9826795656 की जड़ी बूटी - निर्मित दवा से 30 एम एम तक के आकार की बड़ी पथरी भी  नष्ट हो जाती है|
गुर्दे की सूजन ,पेशाब मे जलन ,मूत्रकष्ट मे यह औषधि रामबाण की तरह असरदार है| आपरेशन की जरूरत ही नहीं पड़ती | पथरी न गले तो औषधि मनीबेक गारंटी युक्त है|




16.2.17

सम्मोहन और स्तंभन की दिव्य औषधि कस्तूरी के अनुपम प्रयोग




कस्तूरी  मृग : 
   हिमालय में ऐसे कई जीव-जंतु हैं, जो बहुत ही दुर्लभ है। उनमें से एक दुनिया का सबसे दुर्लभ मृग है कस्तूरी मृग। यह हिरण उत्तर पाकिस्तान, उत्तर भारत, चीन, तिब्बत, साइबेरिया, मंगोलिया में ही पाया जाता है। इस मृग की कस्तूरी बहुत ही सुगंधित और औषधीय गुणों से युक्त होती है। कस्तूरी मृग की कस्तूरी दुनिया में सबसे महंगे पशु उत्पादों में से एक है। यह कस्तूरी उसके शरीर के पिछले हिस्से की ग्रंथि में एक पदार्थ के रूप में होती है।  
कस्तूरी चॉकलेटी रंग की होती है, जो एक थैली के अंदर द्रव रूप में पाई जाती है। इसे निकालकर व सुखाकर इस्तेमाल किया जाता है। कस्तूरी मृग से मिलने वाली कस्तूरी की अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमत अनुमानित 30.लाख रुपए प्रति किलो है जिसके कारण इसका शिकार किया जाता रहा है। आयुर्वेद में कस्तूरी से टीबी, मिर्गी, हृदय संबंधी बीमारियां, आर्थराइटिस जैसी कई बीमारियों का इलाज किया जा सकता है। इसका इस्तेमाल इत्र बनाने में भी किया जाता है। माना जाता है कि यह कस्तूरी कई चमत्कारिक धार्मिक और सांसारिक लाभ देने वाली औषधि है।  

कस्तूरी तीन प्रकार की होती है :
1. कामरूप में उत्पन्न कस्तूरी काले रंग की होती है और उत्तम भी होती है।
2. नेपाल में पैदा होने वाली कस्तूरी के रंग के बार में कस्तूरी रंग में भूरी होती है। इसका रंग नीला होता है।
3. कश्मीर में पैदा होने वाली कस्तूरी कपिल रंग की होती है और यह कस्तूरी सामान्य गुणों वाला होती है।
असली कस्तूरी की पहचान करना :
छोटे, अधिक आयु वाले व कमजोर हिरन की नाभि की कस्तूरी धीमी गंध वाली होती है और कामातुर और व्यस्क हिरन की नाभी की कस्तूरी साफ रंग वाली व बहुत ही कम खुशबू वाली होती है।
यदि कस्तूरी छूने पर चिकनी महसूस हो, जलाने से धुएं की तरह गंध आए, कपडे़ पर इसका पीला दाग लगे, आग में जल्दी जल जाएं, मलने पर रूखा महसूस हो तो यह बनावटी और नकली कस्तूरी होता है।


यदि कस्तूरी से केवड़े के फूल की तरह हल्की और सुगंध आती हो। इसका रंग सावला, नीला और भूरा हो। इसका स्वाद कडुवा हो, मलने पर चिकनाहट महसूस हो, आग में जलाने से काफी देर तक जलता हो तो इस तरह की कस्तूरी हिरन की नाभि से उत्पन्न हुई कस्तूरी होती है।

यदि कस्तूरी को अदरक के रस में मलाकर सिर पर लगा दिया जाए तो तुरन्त ही नाक से खून टपकने लगता है और असली मलयागिर चन्दन सिर पर लगा दिया जाए तो खून का बहना बंद हो जाता है। यह असली कस्तूरी और चन्दन की पहचान है।

विभिन्न भाषाओं में नाम :
संस्कृत
मृगनाभि, मृगमद।
हिन्दी
कस्तूरी।
अंग्रेजी
मुश्क।
लैटिन
मोसकस।
मराठी
कस्तूरी।
बंगाली
मृगनाभि।
फारसी
मुष्क।
अरबी
मिस्क।
रंग : कस्तूरी हल्की लाल, काली, नीली एवं भूरी होती है।
स्वाद : यह कडुवी होती है।
स्वरूप : कस्तूरी काले हिरन की नाभि से प्राप्त की जाती है। यह बहुत सुगंधित होती है और इसकी सुगंध काफी दूर तक फैलती है। यह हृदय के लिए बहुत लाभकारी होता है।

प्रकृति : यह गर्म होती है।
हानिकारक : कस्तूरी पित्त प्रकृति वालों के लिए हानिकारक है और इससे सिर दर्द पैदा होता है।
दोषों को दूर करने वाला : वंशलोचन और गुलाब का रस कस्तूरी में व्याप्त दोषों को दूर करता है।
तुलना : वंशलोचन, मक्खी की पंख, घोड़ी की लीद से कस्तूरी की तुलना की जा सकती है।
मात्रा : आधा ग्राम से 1 ग्राम तक।
गुण : कस्तूरी मन को शांत व प्रसन्न करती है। आंखों के लिए फायदेमंद होती है। यह बदबू को दूर करती है। यह दिल के लिए अच्छी होती है और दिमाग को तेज करती है। शरीर में गर्मी पैदा करती हैं, स्मरण शक्ति को बढ़ाती है, धातु को पुष्ट करती है, प्रमेह को खत्म करती है एवं लकवे को समाप्त करती है   अष्टगन्ध में कस्तूरी सर्वाधिक मूल्यवान और महत्त्वपूर्ण पदार्थ है।आयुर्वेद,कर्मकांड, और तन्त्र में इसका विशेष प्रयोग होता है,किन्तु सुलभ प्राप्य नहीं होने के कारण नकल का व्यापार भी व्यापक है। उपलब्धि-स्रोत के विचार से कस्तूरी तीन प्रकार का होता है-
1. मृगा कस्तूरी-
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है- मृग के शरीर से प्राप्त होने वाला यह एक जांगम द्रव्य है।ध्यातव्य है कि यह सभी मृगों में नहीं पाया जाता,प्रत्युत एक विशेष जाति के मृगों में ही पाया जाता है।उन विशिष्ट मृगों में भी सभी में हो ही- यह आवश्यक नहीं।इस प्रकार, विशिष्ट में भी विशिष्ट की श्रेणी में है।मृग की नाभि में एक विशेष प्रकार का अन्तःस्राव क्रमशः एकत्र होने लगता है,जिसका सुगन्ध धीरे-धीरे बाहर भी प्रस्फुटित होने लगता है।यहां तक कि उस सुगन्ध की अनुभूति उस अभागे मृग को होती तो है,किन्तु उसे यह ज्ञात नहीं होता कि सुगन्ध का स्रोत क्या है।उसे वह कोई बाहरी सुगन्ध समझ कर,उसकी खोज में इधर-उधर अति व्यग्र होकर भटकता है,और, यहां तक कि व्यग्रता में दौड़ लगाते-लगाते मूर्छित होकर गिर पड़ता है।प्रायः उस अवस्था में उसकी मृत्यु भी हो जाती है। "कस्तूरी कुण्डली बसे, मृग ढूढे वन माहीं..." की उक्ति इस बात का उदाहरण है।मृत मृग की नाभि को काट कर उससे वह गांठ प्राप्त कर लिया जाता है।ऊपर के चर्म-कवच को काट कर भीतर भरे कस्तूरी(महीन रवादार पदार्थ)को निकाल लिया जाता है।धन-लोलुप शिकारी(वनजारे) सुगन्ध के आभास से मृगों का टोह लेते रहते हैं,और उन्हें मार कर नाभि निकाल लेते हैं।वैसे भी नाभि-ग्रन्थि के काट लेने पर किसी प्राणी का बचना असम्भव है।आजकल इन मृगों की प्रजाति लगभग नष्ट की स्थिति में है।भेड़-बकरे की नाभि को काटकर,उसमें कृत्रिम सुगन्धित पदार्थ भर कर धड़ल्ले से नकली कस्तूरी का व्यापार होता है।अनजाने लोग ठगी के शिकार होते हैं,और द्रव्य-शुद्धि के अभाव में साधित क्रिया फलदायी नहीं होने पर साधक के साथ-साथ तन्त्रशास्त्र की भी बदनामी होती है।

2. विडाल कस्तूरी-
नाम से ही स्पष्ट है- विडाल(बिल्ली) के शरीर से प्राप्त होने वाला एक जांगम द्रव्य।वस्तुतः नरविलाव के अण्डकोश में एकत्र एक विशेष प्रकार का अन्तःस्राव(शुक्रकीटों के पोषणार्थ निर्मित)घनीभूत होकर एक सुगन्धित पदार्थ का सृजन करता है,जो काफी हद तक मृगाकस्तूरी से गुण-धर्म-साम्य रखता है।यह प्रायः प्रत्येक नरविडाल के अण्डकोश से प्राप्त किया जा सकता है।इस प्रकार प्राप्ति का सबसे सुलभ और सस्ता स्रोत है।अरबी विद्वानों ने इसे ज़ुन्दवदस्तर नाम दिया है।हकीमी दवाइयों में इसका काफी उपयोग होता है।तन्त्र शास्त्र में जहां कहीं भी कस्तूरी की चर्चा है, मुख्य रूप से मृगाकस्तूरी ही प्रयुक्त होता है।पवित्र जांगम द्रव्यों में वही मर्यादित है सिर्फ,न कि विडाल कस्तूरी।वैसे तामसिक तन्त्र साधक इसका प्रयोग धड़ल्ले से करते हैं,और लाभ भी होता है,किन्तु सात्विक साधकों के लिए यह सर्वदा वर्जित है।
3. लता कस्तूरी-
 यह एक वानस्पतिक द्रव्य है,जिसे किंचित गुण-धर्म के कारण कस्तूरी की संज्ञा दी गयी है।वैसे नाम है लता कस्तूरी,किन्तु इसका पौधा,फूल,पत्तियां सबकुछ भिण्डी(रामतुरई)के समान होता है,बल्कि उससे भी थोड़ा बड़ा ही।फल की बनावट भी भिण्डी जैसी ही होती होती है,परन्तु विलकुल ठिगना ही रह जाता है- लम्बाई में विकास न होकर,सिर्फ मोटाई में विकास होता है,और फल लगने के दो-चार दिनों में ही पुष्ट(कड़ा) हो जाता है।पुष्ट होने से पहले यदि तोड़ लिया जाय तो ठीक भिण्डी की तरह ही सब्जी बनायी जा सकती है।वैसे सब्जी की तुलना में इसका भुजिया अधिक अच्छा होता है।प्रत्येक पौधे में फल की मात्रा भी भिण्डी की तुलना में काफी अधिक होता है। इसकी एक और विशेषता है कि यह बहुवर्षायु वनस्पति है।छोड़ देने पर काफी बड़ा(अमरुद, अनार जैसा) हो जाता है,और लागातार बारहों महीने फल देते रहता है।एक बात का ध्यान रखना पड़ता है कि हर वर्ष कार्तिक से फाल्गुन महीने के बीच सुविधानुसार यदि थोड़ी छंटाई कर दी जाय तो नये डंठल निकल कर पौधे का सम्यक् विकास होकर फल की गुणवत्ता में वृद्धि होती है।खेती की दृष्टि से यदि रोपण करना हो तो हर तीसरे वर्ष नये बीज डाल देने चाहिए।इसका फल बहुत ही पौष्टिक होता है।पौष्टिकता में जड़ों की भी अपनी विशेषता है।इसे सुखा कर चूर्ण बनाकर,एक-एक चम्मच प्रातः-सायं मधु के साथ सेवन करने से बल-वीर्य की वृद्धि होती है।पुष्ट-परिपक्व फलों से प्राप्त बीजों को चूर्ण कर कस्तूरी की तरह उपयोग किया जा सकता है,जो किंचित सुगन्ध युक्त होता है।गुण-धर्म में मृगाकस्तूरी जैसा तो नहीं,फिर भी काफी हद कर कारगर है।
आयुर्वेद में स्थिति के अनुसार उक्त तीनों प्रकार के कस्तूरी का उपयोग किया जाता है।कर्मकाण्ड और तन्त्र में मुख्य घटक के साथ-साथ "योगवाही" रुप में भी प्रयुक्त होता है।कस्तूरी में सम्मोहन और स्तम्भन शक्ति अद्भुत रुप में विद्यमान है,चाहे वह शरीर के वीर्य(शुक्र) का स्तम्भन हो या कि बाहरी (शत्रु,शस्त्रादि) स्तम्भन।यह एक विकट रुप से उत्तेजक द्रव्य भी है।शरीर में ऊष्मा के संतुलन में भी इसका महद् योगदान है। कस्तूरी अष्टगन्ध का एक प्रमुख घटक है।इसके बिना अष्टगन्ध की कल्पना ही व्यर्थ है।साधित कस्तूरी के तिलक प्रयोग से संकल्पानुसार षट्कर्मों की सम्यक् सिद्धि होती है।अन्य आवश्यक द्रव्य मिश्रित कर दिये जायें,फिर कहना ही क्या।सौभाग्य से असली कस्तूरी प्राप्त हो जाय तो सोने या चांदी की डिबिया में रख कर पंचोपचार पूजन करने के बाद श्री शिवपंचाक्षर,और देवी नवार्ण मन्त्रों का एक-एक हजार जप (दशांश होमादि सहित) सम्पन्न करके डिबिया को सुरक्षित रख लें।इसे लम्बे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है।प्रयोग की मात्रा बहुत ही कम होती है- सूई के नोक पर जितना आ सके- एक बार के उपयोग के लिए काफी है।जैसा कि ऊपर भी कह आये हैं- सात्विक साधक सिर्फ मृगाकस्तूरी का ही प्रयोग करें।अभाव में आठ गुणा बल(साधना) देकर लता कस्तूरी का प्रयोग किया जा सकता है,किन्तु विडाल कस्तूरी(जुन्दवदस्तर) का प्रयोग कदापि न करें।





15.2.17

चम्पा के गुण,फायदे ,उपयोग




    चम्पा का वृक्ष दक्षिण- पूर्व एशिया (चीन, मलेशिया, सुमात्रा, जावा और भारत में प्राकृतिक रूप से) पाया जाता है। चम्पा का मूल उत्पत्ति स्थान भारत में पूर्वी हिमालय तथा अन्य पड़ोसी देशों में इंडोनोशिया को माना जाता है। चम्पा निकारगोवा और लाओस देशों का राष्ट्रीय फूल है। चम्पा के वृक्षों का उपयोग घर, पार्क, पार्किग स्थल और सजावटी पौधे के रूप में किया जाता है।
चम्पा (Plumeria) के गुण – यह कसैली, चरपरी, मधुर, शीतल तथा विष, क्रमी, बात, कफ, और पित्त नाशक होती है|
चम्पा की छाल और पत्तियों का उपयोग बुखार उतारने के लिए विशेषकर उन माताओं के जिनकी डिलेवरी अभी हुई है । फूलों का उपयोग कुष्ठ रोग में और पत्तियों का उपयोग पैर दर्द के लिए किया जाता है ।
चंपा का पेड़ औषधीय गुणों से भरपूर होता है। चंपा के पत्तों का ताजा रस 20 ग्राम पीने से पेट के नुकसानदायक कीड़े मर जाते हैं। चंपा के सूखे पत्तों को पीसकर कुष्ठ रोग के घावों में लगाने से कुष्ठ रोग ठीक हो जाता है।
   चम्पा का वृक्ष मंदिर परिसर और आश्रम के वातावरण को शुद्ध करने के लिए लगाये जाते है । चम्पा के खूबसूरत, मन्द सुगंधित हल्के सफेद, पीले फूल पूजा में उपयोग किये जाते हैं । चम्पा का मूल उत्पत्ति स्थान भारत में पूर्वी हिमालय तथा तथा इंडोनेशिया है ।



चम्पा के फूल कड़वे , अग्निवर्धक और चर्म रोगों में लाभदायी होते हैं । हृदय और मस्तिष्क को शक्ति देते हैं । कुष्ठ, चोट, रक्त विकार आदि रोगों में इसका लेप लाभप्रद है 
चम्पा की कलियां पानी में पीसकर चेहरे पर लगाने से दाग-धब्बे, झाइयां दूर हो जाती हैं । सुजाक में भी चम्पा के फूल लाभदायक हैं ।
चम्पा का वृक्ष दक्षिण-पूर्व एशिया ,चीन, मलेशिया, सुमात्रा, जावा और भारत में पाया जाता है । भारतीय चम्पा के 5 प्रमुख प्रकार हैं 1. सोन चम्पा, 2. नाग चम्पा, 3. कनक चम्पा, 4. सुल्तान चम्पा, 5. कटहरी चम्पा ।
पत्ते लम्बे-लम्बे महुआ के पत्तों की भांति पीले रंग के तथा कोमल होते हैं। इसके फूल पीले 4-5 पंखुड़ियों सहित 5-7 केसरों से युक्त होते हैं। चम्पा फूल तीन रंगों में :- सफेद, लाल और पीले में पाया जाता है ।
पीले रंग की चम्पा को स्वर्ण चम्पा कहा जाता है और ये बहुत कम नजर आता है । चम्पा के वृ़क्ष पर 2 से 3 साल बाद फूल लगने शुरू हो जाते हैं ।
विभिन्न भाषाओं में नाम :-
हिन्दी-चंपा ,मराठी-सोनचम्पा, तमिल-चम्बुगम या चम्बुगा, मणिपुरी-लिहाओ, तेलगु-चम्पानजी, कन्नड-चम्पीजे, बगाली-चंपा, शिंगली -सपु, उड़िया-चोम्पो, इण्डोनेशियाई -कम्पक।



चम्पा को कामदेव के पाँच फूलों में गिना जाता है। देवी माँ ललिता अम्बिका के चरणों में भी चम्पा के फूल को अन्य फूलों जैसे- अशोक, पुन्नाग के साथ सजाया जाता है। पुन्नाग प्रजाति के फूल का सम्बन्ध भगवान विष्णु से माना जाता है। रविन्द्रनाथ टैगोर ने इसे अमर फूल कहा है। चम्पा का वृक्ष वास्तु की दृष्टि से सौभाग्य का प्रतीक माना गया है। इसी कारण दक्षिणी एशिया के बौद्ध मंदिरों में ये बहुतायत से पाए जाते हैं
विदेशी संस्कृति में-
बांग्लादेश में इसके पुष्प को मृत्यु से जोड़ा जाता है। अनेक स्थानीय लोक-मान्यताओं में चम्पा का भूत-प्रेत और राक्षसों को आश्रय प्रदान करने वाला वृक्ष माना जाता है। इसकी सुगन्ध को मलय लोक कथाओं में एक पिशाच से सम्बन्धित माना गया है। फिलीपीन्स में, जहाँ इसे कालाचूची कहते हैं इसे मृत आत्माओं से संबंधित माना गया है, इसकी कुछ प्रजातियों को कब्रिस्तानों में लगाया जाता है। फीजी आदि द्वीप समूह के देशों में महिलाओं द्वारा इसके फूल को रिश्ते के संकेत के रूप में कानों में धारण किया जाता है। दाहिने कान में पहनने का मतलब रिश्ते की माँग और बाँये कान में पहनने का मतलब रिश्ता मिल गया है।



औषधीय गुण :-
* दिल और दिमाग शक्ति शाली बनता है।( चम्पा के फूल सूंघने से ) ।
* जलन में आराम मिलता है। ( चम्पा फूलों को पीसकर शरीर में लेप करने से )।
*आमाशय का घाव एवं दर्द ठीक हो जाता है।( चम्पा के फूलों का काढ़ा पीने से )।
* गठिया के रोगी को चम्पा के फूलों के तेल से मालिश करने से लाभ मिलता है।
* शरीर की शक्ति को बढ़ाने के लिए। ( चम्पा के फूलों का चूर्ण , शहद मिलाकर खाने से )
* रुकी हुई माहवारी ।  चम्पा की जड़ का चूर्ण 600 मिलीग्राम से 1.80 ग्राम की मात्रा में सुबह-शाम देने से
*सांप के विष पर- बेल की छाल और इसकी की छाल को एक साथ पीस कर उसका रस पीना चाहिए इससे विष का असर खत्म हो जाता है.
*गैस पर- 
गैस की परेशानी में सफेद इसके के पत्तों को गरम करके सेकना चाहिए या इनका रस पीना चाहिए इससे गैस की परेशानी दूर हो जाती है.



खुजली में-
 इसके के दूध में नारियल या चन्दन का तेल और कपूर मिला कर लेप करने से खुजली दूर हो जाती है.



गांठें बिठाने के लिए- 
चम्पा का दूध लगाने से गाँठ आदि बैठ जाती है.
इसका रस इतना गरम होता है की शरीर पर लगने से छाले पड जाते हैं. इसके फूलों का शाक बनाया जाता है. चम्पा का वृक्ष कुष्ठ, खाज,शूल, कफ, वायु, और उदर का नाश करता है.

चम्पा का वृक्ष दक्षिण- पूर्व एशिया (चीन, मलेशिया, सुमात्रा, जावा और भारत में प्राकृतिक रूप से) पाया जाता है। चम्पा का मूल उत्पत्ति स्थान भारत में पूर्वी हिमालय तथा अन्य पड़ोसी देशों में इंडोनोशिया को माना जाता है। चम्पा निकारगोवा और लाओस देशों का राष्ट्रीय फूल है। चम्पा के वृक्षों का उपयोग घर, पार्क, पार्किग स्थल और सजावटी पौधे के रूप में किया जाता है।
भारतीय संस्कृति में-
चम्पा के खूबसूरत, मन्द, सुगन्धित हल्के सफेद, पीले फूल अक्सर पूजा में उपयोग किये जाते हैं। चम्पा का वृक्ष मन्दिर परिसर और आश्रम के वातावरण को शुद्ध करने के लिए लगाया जाता है। हिन्दू पौराणिक कथाओं में एक कहावत है कि ’’चम्पा तुझमें तीन गुण-रंग रूप और वास, अवगुण तुझमें एक ही भँवर न आयें पास’’।
रूप तेज तो राधिके, अरु भँवर कृष्ण को दास, इस मर्यादा के लिये भँवर न आयें पास।।
चम्पा में पराग नहीं होता है। इसलिए इसके पुष्प पर मधुमक्खियाँ कभी भी नहीं बैठती हैं, लेकिन इसके बीज पक्षियों को बहुत आकर्षित करते हैं। कहा जाता है, कि चम्पा को राधिका और कृष्ण को भँवर और मधुमक्खियों को कृष्ण के दास-दासी के रूप में माना गया है। राधिका कृष्ण की सखी होने के कारण मधुमक्खियाँ चम्पा के वृक्ष पर कभी नहीं बैठती हैं। 



    चम्पा को कामदेव के पाँच फूलों में गिना जाता है। देवी माँ ललिता अम्बिका के चरणों में भी चम्पा के फूल को अन्य फूलों जैसे- अशोक, पुन्नाग के साथ सजाया जाता है। पुन्नाग प्रजाति के फूल का सम्बन्ध भगवान विष्णु से माना जाता है। रविन्द्रनाथ टैगोर ने इसे अमर फूल कहा है। चम्पा का वृक्ष वास्तु की दृष्टि से सौभाग्य का प्रतीक माना गया है। इसी कारण दक्षिणी एशिया के बौद्ध मंदिरों में ये बहुतायत से पाए जाते हैं।

विदेशी संस्कृति में-
     बांग्लादेश में इसके पुष्प को मृत्यु से जोड़ा जाता है। अनेक स्थानीय लोक-मान्यताओं में चम्पा का भूत-प्रेत और राक्षसों को आश्रय प्रदान करने वाला वृक्ष माना जाता है। इसकी सुगन्ध को मलय लोक कथाओं में एक पिशाच से सम्बन्धित माना गया है। फिलीपीन्स में, जहाँ इसे कालाचूची कहते हैं इसे मृत आत्माओं से संबंधित माना गया है, इसकी कुछ प्रजातियों को कब्रिस्तानों में लगाया जाता है। फीजी आदि द्वीप समूह के देशों में महिलाओं द्वारा इसके फूल को रिश्ते के संकेत के रूप में कानों में धारण किया जाता है। दाहिने कान में पहनने का मतलब रिश्ते की माँग और बाँये कान में पहनने का मतलब रिश्ता मिल गया है।



विभिन्न भाषाओं में चम्पा के नाम-
भारतीय भाषाओं में देखें तो चंपा को मराठी में सोनचम्पा, तमिल में चम्बुगम या चम्बुगा, मणिपुरी में लिहाओ, तेलगु में चम्पानजी, कन्नड चम्पीजे, बगाली में चंपा, शिंगली सपु, उड़िया में चोम्पो, इण्डोनेशियाई में कम्पक, कोंकणीं में पुड़चम्पो, असमिया में तितान्सोपा तथा संस्कृत चम्पकम् कहते हैं। विदेशी भाषाओं में अंग्रेजी में इसे प्लूमेरिया अल्बा या फ्रेंजीपानी, स्पैनिश में चम्पका, बर्मी में मवाक-सम-लग, चीनी में चाय-पा, थाई में चम्पा या खोओ तथा फ्रेंच इलांग- इंलग कहते हैं।



वानस्पतिक विवरण-

    चम्पा मैग्नोलिशिया परिवार का उष्ण-कटिबन्धीय झाड़ियों और छोटे पेड़, पौधे जगत में ९५ (अरब) वर्ष पहले अस्तित्व में आया। चम्पा की लगभग ४० प्रजातियाँ उष्ण-कटिबन्धीय और उपउष्ण-कटिबन्धीय क्षेत्रों में पायी जाती हैं। इसके सदाबहार वृक्ष सामान्यतः १८ से २१ मी. लम्बे होते हैं। इसकी खुशबू अत्यन्त मादक होती है। इसके पौधों को बोनसाई के रूप में बनाकर घर के भीतर के वातावरण को सुगन्धित किया जाता है। इसके वृक्ष अर्धपर्ण पाती छोटे से मध्यम आकार के होते है। पेड़ की छाल, सतह चिकनी, भूरे रंग की सफेद भीतरी छाल रेशेदार होती है। पत्तियाँ, सामान्य पूर्ण और गोले के आकार में व्यवस्थित होती हैं। पत्तियाँ डण्डलों से मुक्त होती हैं। पेड़ फूल और फल वर्ष भर देते है। फूलों का परागण कीटों (बीटल) द्वारा होता है। जो पराग (दलपुंज) से निकलता है। कीटों के लिए उपयुक्त आहार होता है।
वैज्ञानिक परिचयः-
वानस्पतिक जगत में मैग्नोलेशिया फूलों के वृक्षों का एक परिवार है। जिसमें २१० फूलों की प्रजातियों में चम्पा एक फूल है। मैग्नोलेशिया नाम फ्रेंच वानस्पतिक शास्त्री पियरे मैग्नोल’ के नाम पर रखा गया है। ऐसा माना जाता है कि इस प्रकार के फूल वाले वृक्ष मधुमक्खियों से पहले की उत्पत्ति के हैं, और इनमें परागण का कार्य भृंग कीटों द्वारा होता है। भृंग कीटों से फूलों को हानि होने से बचाने के लिए फूल बहुत मजबूत होते हैं। इस परिवार के पुष्पों में दल एवं दलपुंज में अन्तर नहीं होता। इस प्रकार के फूलों और चम्पा के वृक्ष को पहले चार्ल्स फ्लूमियर ने १७०३ में प्लूमिरेसि वानस्पतिक परिवार में वर्णित किया था। लेकिन बाद में फ्लूमेरेसि परिवार के सारे सदस्यों को मग्नोलेशिया परिवार में सम्मलित कर लिया गया है।



चंपा की प्रमुख प्रजातियाँ-
चंपा को पंखुरियों के आकार आधार पर दो प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता है माइकेलिया जिसकी पंखुरियाँ लंबी और नुकीली होती हैं तथा प्लूमेरियि जिसकी पंखुरियाँ चौड़ी और गोल होती हैं। माइकेलिया प्रजाति की चंपा के पाँच प्रमुख प्रकार हैं।
माइकेलिया आइनिया जो गुलाबी रंग का होता है और इसका उत्पत्ति स्थान चीन और वियतनाम माना जाता है।
माइकेलिया अल्बा जो सफेद रंग का होता है, यह एशिया में सबसे अधिक पाया जाता है और सजावटी पौधे तथा महँगे इत्र के लिये प्रसिद्ध है।
माइकेलिया चम्पाका पीला, सफेद जिसका मूल स्थान दक्षिण एशिया है, इसे जोयट्री, के नाम से भी जाना जाता है।
माइकेलिया डीलटसोपा मीठा चम्पा मूल रूप से पूर्वी हिमालय का झाड़ीनुमा वृक्ष है, यह अधिकतम ३० मीटर ऊँचा होता है और इसमें बंसत में फूल निकलते हैं।
माइकोलिया किगो क्रीम, जिसके फूल हल्के बेंगनी होते हैं यह एक प्रकार की वन्य झाड़ी है जिसका दूसरा नाम पोर्टवाइन है।



प्लूमेरिया प्रजाति की चंपा के पाँच या छह प्रमुख प्रकार माने गए हैं, जिसमें से चार बहुतायत से मिलते हैं-
प्लूमेरिया अल्बा जो सफेद रंग का होता है और इसका भीतरी भाग हल्के और गहरे पीले रंग का होता है। यह प्रमुख रूप से एशियाई प्रजाति है तथा दक्षिण एशिया में बहुतायत से पाया जाता है। प्लूमेरिया ऑब्टूसा जो मूल रूप से अमेरिकी प्रजाति है लेकिन सुंदर और सुगंधित फूलों के कारण विश्व भर में उगाई जाती है। इसका फूल सफेद होता है लेकिन केन्द्र में हल्का पीला छोटा सा आकार देखा जा सकता है। इसकी पंखुरियाँ एक दूसरे से अलग और थोड़ी दूर दूर होती हैं।
प्लूमेरिया पुडिका पनामा, कोलम्बिया और वेनेजुएला का निवासी है। इसकी पंखुरिया नर्म और हल्की त्वचा वाली होती है। रंग सफेद और केन्द्र हल्का पीला होता है। इसकी एक विकसित प्रजाति थाईलैंड में पाई जाती है जिसका रंग गुलाबी होता है और रंग के आधार पर इसे पिंक पुडिका भी कहते हैं।
प्लूमेरिया रूब्रा लाल रंग का होता है। प्रमुख रूप से मेस्किको का निवासी यह पेड़ समशीतोष्ण या उष्ण जलवायु में सभी जगह बहुतायत से पाया जाता है। यह सात से आठ मीटर तक ऊँचा होता है और इसमें वसंत तथा गर्मियों के मौसम में सफेद से लाल तकर अनेक छवियों के सुगंधित फूल खिलते हैं।



भारतीय चम्पा के चार प्रमुख प्रकार हैं-



१. सोन चम्पाः-

सोन चम्पा एक लम्बा सदाबहार वृक्ष है। इसकी मूल उत्पत्ति स्थान भारतीय हिमालय या दक्षिण पूर्व एशिया एवं चीन है। इसके फूल पीले या सफेद रंग के अत्यन्त खुशबू वाले होते है। इसका अधिकतम रूप से उपयोग लकड़ी या सजावटी पौधे के रूप में किया है। इसकी प्रजातियाँ पीले से नारंगी रगों में पायी जाती है। इसके अन्य नाम देव चम्पा, गोल्डन चम्पा, ईश्वर चम्पा, आदि है। इस फूल को महिलाओं और लड़कियों द्वारा अपने बालों में सौन्दर्भ आभूषण एवं प्राकृतिक इत्र के लिए प्रयोग किया जाता है। कमरे को सुगन्धित करने के लिए इसके फूल को पानी से भरे पात्र में डालकर रखा जाता है। नयी दुल्हन के माला और विस्तर को सजाने के लिए इसके फूलों का प्रयोग किया जाता है। इस पौधो को ’जोय’ इत्र वृक्ष’’ के नाम से जाना जाता है।
इसका तेल चन्दन के तेल की तुलना में एक अलग तरह से बनाया जाता है। इसे एक शान्त और अँधेरे कमरे में चमड़े की बोतल में संग्रहीत किया जाता है। इसका तेल शरीर की गर्मी को दूर कर देता है। यह चन्दन के तेल की तुलना में ज्यादा असरदार और ठण्डा होता है। सोन चम्पा के फूलों का औषधीय और कास्मेटिक दोनों रूपों में उपयोग किया जाता है। वस्त्रों को रँगने में पीले फूलों का उपयोग होता है। अपच और ज्वार में फूलों का अर्क लेते हैं। सिर,आँख,नाक, कान की बीमारी, सुजाक गुर्दे की बीमारी गढ़िया, चक्कर आना सिरदर्द, में तेल बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है गुलदस्ता सजाने में इसकी पत्तियों का प्रयोग किया जाता है। ताजा नरम पत्तियों को पानी में कुचल कर ऐन्टीसेप्टिक लोशन बनाया जाता है। पत्तियों का रस भी पेट दर्द में प्रयोग होता है।



फूल और पत्ती के अलावा इसकी छाल भी उपयोगी है। इसे उत्तेजक और ज्वर हटाने वाली औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है। आन्तरिक ज्वार को दूर करने के लिए इसके छाल को काढ़े के रूप में प्रयोग करते हैं। छाल को दालचीनी के साथ प्रयोग करके मिलावट के रूप में प्रयोग किया जाता है। पैरों की दरारों में बीज और फल का प्रयोग होता है। पेट फूलना और पेट के कीड़ों में चम्पा के फूल उपयोगी हैं।
२. नाग चम्पा:-
नाग चम्पा के फूल पीले या गुलाबी रंग के होते हैं। नाग चम्पा का एक परंपरागत इतिहास है। भारत और नेपाल के हिन्दू और बौद्ध मठों में नाग चम्पा की खुशबू को बनाने की विधि को गुप्त रखा जाता था। तथा प्रत्येक मठ की एक अलग अपनी सुगन्ध बनाई जाती थी। अध्यात्मिक ज्ञान में पश्चिमी देशों की रुचि बढ़ने से नाग चम्पा के पुष्प के बारे में रुचि अन्य देशों में फैलने लगी। जिससे सुगंध के कारण चम्पा वर्षों बाद भी दूसरे देशों में भी सबसे लोकप्रिय जाना जाता है। अध्यात्मिक ध्यान प्रयोजनों में नाग चम्पा की खुशबू ध्यान की गहराई को और बढ़ा देती है।



नाग चम्पा भारत में सदाबहार पवित्र वृक्ष के रूप में मन्दिरों और आश्रमों में लगाया जाता है। यह हिन्दू देवता विष्णु का प्रतीक माना जाता है। यह फूल अति सुन्दर मादक खुशबू से भरे होते हैं। फूल की पखुड़ियाँ सॉप के फन के सामान होती हैं इसलिए इसे नाग चम्पा कहते हैं। नाग चम्पा की धूप संगीत प्रेमियों के संगीत का हिस्सा है। इसमें रासायनिक रूप से बेन्जीन, एसीटेट, लैक्टोन, लोवान,बेन्जीऐट मिथाइल आदि तत्व मौजूद होते हैं। नाग चम्पा के विभिन्न धूप ब्राण्ड भी हैं। जैसे- धूनी नाग चम्पा, गोलोक नाग चम्पा, सत्यसाईं बाबा नाग चम्पा, शान्ति नाग चम्पा, तुलसी नाग चम्पा, हेम चम्पा आदि।
३. कनक चम्पाः-
कनक चम्पा के वृक्ष को खुशबू के साथ-साथ खाने की थाली के पेड़ के रूप में जाना जाता है। इसके पत्ते ४० से.मी. तक लम्बे होते हैं। तथा दुगनी चौड़ाई के होते हैं। यह वृक्ष ५० से ७० फिट की ऊँचाई तक बढ़ सकता है। भारत के कुछ भागों में इसके पत्ती का प्रयोग बर्तन की जगह किया जाता है। फूल कलियों के अन्दर बन्द होते हैं। कलियाँ पाँच खण्डों में बटी होती हैं। छिले केले की तरह दिखाई देती हैं।



प्रत्येक फूल केवल एक रात तक रहता है। मधुर और सुगन्धित होने के कारण चमगादड़ इन फूलों की तरफ आकर्षित होते हैं। पत्ते, छाल चेचक और खुजली की दवा बनाने में इस्तेमाल होते हैं। इसके वृक्ष की लकड़ी से तख्त बनाये जाते हैं। यह वृक्ष पश्चिमी घाट और भारत के पर्णपाती जगलों में पाया जाता है। समुद्री खारा पानी इसके लिए अत्यन्त उपयुक्त होता है।



४. सुल्तान चम्पाः-

सुल्तान चम्पा दक्षिणी भारत, पूर्वी अफ्रीका,मलेशिया और आस्टेªलिया में समुद्र तटीय क्षेत्रों में सालों साल से पाये जाते हैं। इनकी ऊँचाई ८ से २० मी. तक होती है। यह वृक्ष घना और चमकदार अण्डाकार पत्रों से युक्त होता है। इसके सफेद सुगन्धित पुष्प धीमी गति से बढ़ते हैं जो मई से जून तक आते हैं। इसके केन्द्र में पीले पुंकेसर की मोटी पर्त होती है। यह वृक्ष तराई जंगलों में अच्छी तरह बढ़ता है। इसकी अन्दरूनी क्षेत्रों में मध्यम ऊँचाई पर खेती की जाती है।
इसको अलेकजेन्द्रिया लारेल वृक्ष के नाम से भी जाना जाता है। पेड़ चक्रवात के लिए प्रतिरोधी होते हैं। इसके फल हल्के हरे रंग के गेंदे के आकार के होते हैं। इस वृक्ष को लोक कथाओं में भगवान शिव से सम्बन्ध माना जाता है। यह शिव के पसन्द आठ फूलों में से एक है। जिसे पूजा में शिव को अर्जित किया जाता है।
इस वृक्ष के चारों ओर महिलायें नृत्य करते हुये इसे पैर से ठोकर मारें तो यह खिल जाता है। एक कहावत है कि, इस तरह के वृक्ष में दिव्य आत्मायें रहती हैं। इसके वृक्ष का उपयोग तेल, साबुन,जहाज और नाव,रेल्वे स्लीपर, प्लाई जंगले अलमारियाँ, सजावटी समान आदि बनाया जाता है। यह एक अच्छा छायादार वृक्ष होता है। जो वनीकरण में प्रयोग होता है। इसको वात, पित, डायरिया, मूत्र रोगों आदि में प्रयोग किया जाता है।



५ कटहरी चंपा
'कटहरी चम्पा को हरी चंपा भी कहते हैं। इसका पौधा चंपा की अन्य जातियों से भिन्न होता है लेकिन इसका फूल चंपा की कुछ प्रजातियों से मिलता जुलता है।
इसका पेड़ झाड़ी जैसा, तीन से लेकर पाँच मीटर तक ऊँचा होता है। पत्तियाँ सरल तथा चमकीली हरी होती हैं।
फूल अर्धवृत्ताकार डंठल पर लगते हैं। ये डंठल अन्य वृक्षों की डालियों के ऊपर चढ़ने में उपयोगी होते हैं। शुरू में फूल हरे होते हैं, परंतु बाद में इनका रंग हलका पीला हो जाता है। इन फूलों से पर्याप्त सुगंध निकलती है, जो पके कटहल के गंध जैसी होती है। इससे इनका पता पेड़ पर आसानी से लग जाता है।
उपयोगिता-
१. कृषि में उपयोगः-
चम्पा के वृक्ष को पुनः- जंगल को हरा भरा करने के लिये लगाया जाता है। वृक्ष में भूमि में नत्रजन इक्ट्ठा करने की क्षमता होती है। वृक्ष की जड़ों में कृषि के लिये उपयोगी फफूँद पाई जाती है। वृक्ष मृदा सुधार के लिऐ उपयोगी है। वृक्ष के आस-पास के पी.एच. मान में बढोत्तरी, मृदा कार्बन तथा उपलब्ध फास्फोरस बढ़ाने में सहायक होता है। पत्तियों को रेशम के कीटों के भोजन के लिये उपयोग किया जाता है। पत्तियों का रस धान में रोग पैदा करने वाली फफूँद (पाईरिकोलेरिया ओराइजी) केयों का उपयोग पैर दर्द के लिये किया जाता है। पुरूषों की ताकत और ऊर्जा के लिए इसके फूलों से औषधि बनाई जाती है। पीले चम्पा के फूल कुष्ठ रोग में उपयोग होते हैं। इसकी बूदें रक्त में मौजूद कीटाणुओं को नष्ट कर देती हैं।
प्रति विषाक्त तथा अन्य जीवाणुओं के प्रति -जैविक होता है।

 

२. औषधि में उपयोगः-
छाल और पत्तियों का उपयोग बच्चा पैदा होने के बाद होने वाले ज्वर को दूर करने वाली औषधि के रूप में किया जाता है।
* चेहरा दाग धब्बे रहित और चमकदार हो जाता है। चम्पा फूलों को पीसकर पानी या निम्बू के रस के साथ लगाने से ।
* दूषित रक्त (खून की खराबी) साफ हो जाता है। 3 ग्राम चम्पा की छाल के चूर्ण को दिन में 2 बार पानी के साथ खाने से ।

सावधानियां
* चम्पा के फूल कड़वे और ठण्डी प्रकृति की होती है।
* चिकित्‍सा के लिए उपयोग करने से पहले अपने चिकित्‍सक से परामर्श अवश्‍य ले लें।
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11.2.17

हर्निया (आंत उतरना) के घरेलू हर्बल उपचार//ayurvedic,home remedies for hernia




   आमतौर पर हर्निया होने का कारण पेट की दीवार का कमजोर होना है | पेट और जांघों के जोड़ वाले भाग मे जहां पेट की दीवार कमजोर पड़ जाती है वहां आंत का एक गुच्छा उसमें छेद बनाकर निकल आता है | आंत का कुछ भाग किसी अन्य भाग से भी जहां पेट की दीवार कमजोर होती है, बाहर निकल सकता है | परंतु ऐसा बहुत कम होता है | आंत का गुच्छा बाहर निकलने से उस स्थान पर दर्द होने लगता है | इसी को हर्निया अथवा आंत्रवृद्धि कहते हैं हर्निया से आज बहुत से लोग पीड़ित हैं। लेकिन या तो वह इस बीमारी से अभी तक अनभिज्ञ हैं या फिर डॉक्टर के पास तभी जाते हैं, जब तकलीफ असहनीय हो जाती है। आमतौर पर लोगों को लगता है कि हर्निया का एकमात्र इलाज सर्जरी है जिसकी वजह से वे डॉक्टर के पास जाने से डरते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है हर्निया बिना सर्जरी के भी ठीक हो सकता है।

कारण

अत्यधिक श्रम, अपनी शक्ति से अधिक भारी वस्तु उठाना, निरंतर खांसते रहना अथवा शौच के समय मल त्यागने के लिए जोर लगाने से भी हर्निया हो जाता है | अधिक मोटे व्यक्ति को पेट पर अधिक जोर डालने से भी हर्निया होने की संभावना रहती है | ऑपरेशन होने के बाद भी हर्निया होने की संभावना रहती है | गर्भावस्था में पेट पर जोर पड़ने से भी हर्निया हो सकता है | परंतु यह रोग सामान्यतया पुरुषों को अधिक होता है |

 घरेलू उपचार-


*अरंडी के तेल को एक कप दूध में डालकर पीने से हर्निया ठीक हो जाता है | इसका प्रयोग एक मास तक करें |

अदरक की जड़-

इसके सेवन से हर्निया की समस्या में आराम मिलता हैं ।

• बर्फ-

इसको हर्निया वाली जगह में रखने से आराम मिलता हैं । सूजन भी कम होता हैं और दर्द में भी आराम मिलता हैं ।
*टमाटर का रस, थोड़ा नमक और कालीमिर्च मिलाकर प्रात:काल पीने से जहां अन्य अनेक लाभ होते हैं वहीं हर्निया -ठीक होने में भी सहायता मिलती है |
• केला-

रोज केले का सेवन करे जिससे हर्निया में आराम मिलेगा ।

• सेव का सिरका-

भोजन के एक घंटे बाद एक चम्मच सेव के सिरके का सेवन करे ।

• अलसी-

अलसी को भूनकर के खाएं जिससे आराम मिलता हैं ।

• जौ का आटा-

भोजन में इसे शामिल करे जिससे आपको हर्निया की समस्या से छुटकारा मिलेगा ।

• मेथी दाना-

रात को एक चम्मच मेथी दाना एक गिलास पानी में भिगो कर रख दीजिये और सुबह मेथी दाना चबा चबा कर खा लीजिये और इस पानी को घूँट घूँट कर के पी लीजिये ।

• एलोवेरा जूस-

सुबह खाली पेट एलो वेरा जूस ज़रूर पिए, एक गिलास पानी में कम से कम ३० मिली एलो वेरा डालिये और इसको घूँट घूँट कर पी लीजिये।
* कॉफी के प्रयोग से भी बढ़ी हुई आंत का फोड़ा ठीक हो जाता है |
* यदि आगे बढ़ी आंत को आराम से पीछे धकेलकर अपने स्थान पर पहुंचा दिया जाए तो उसे उसी स्थिति में रखने के लिए कसकर बांध दिया जाता है | यह विधि कारगर न हो सके तो ऑपरेशन करना पड़ता है |
* पेट यदि बहुत बढ़ा हुआ हो तो उसे भी घटाने का प्रयत्न करना चाहिए |
* हर्निया के रोगी के लिए आवश्यक है कि वह कब्ज न होने दे वर्ना मल त्यागते समय उसे जोर लगाने की आवश्यकता पड़ेगी |
* अपच होना भी हर्निया के रोगी के लिए हानिकारक है |
हर्निया की समस्या से बचने के लिए

खाने के बाद वाकिंग

खाना खाने के बाद टहले, सीधे जाकर के सोयें नहीं ।

• दबाब से बचे-

उन कामो को करने से बचे जिनसे दवाब होता हैं क्योकि इससे हर्निया बढ़ भी सकता हैं ।
हमने आपको यहाँ पर हर्निया के इलाज बताएं हैं जिनको अपना के आप अपने इस रोग को ठीक कर सकते हैं । यह समस्या ज्यादा बड़ी नहीं होती जब आप इसका शुरुआती इलाज करले लेकिन यह बहुत बड़ी हो जाते है जब यह बढ़ जाती हैं । इसीलिए आप इन घरेलू चीजो का उपयोग करे और हर्निया को ठीक कर ले । ध्यान रहे अगर इसका उपयोग करने से आपको आराम नहीं मिलता हैं तो आप ऑपरेशन करा सकते हैं
मलाशय की ठीक प्रकार से सफाई
मोटापे व वजन बढ़ने की समस्या से बचें
प्रोटीन व विटामिन सी सप्लीमेंट का सेवन
आरामदायक अंडर गारमेंट ही पहनें
उन कार्यों से बचना चाहिए, जो हमारे पेट की मांसपेशियों पर अधिक दबाव डालते हों।
वजन भी संतुलित रखना चाहिए।
अगर कब्ज की समस्या है तो इसका तुरंत उपचार कीजिए।
रेशेदार पदार्थों का सेवन करें।

योग के जरिए हर्निया का इलाज

ट्री पोज-

पहले सावधान मुद्रा में खड़े हो जाएं। फिर दोनों पैरों को एक दूसरे से कुछ दूर रखते हुए खड़े रहें और फिर हाथों को सिर के ऊपर उठाते हुए सीधाकर हथेलियों को मिला दें। इसके बाद दाहिने पैर को घुटने से मोड़ते हुए उसके तलवे को बाईं जांघ पर टिका दें। इस स्थिति के दौरान दाहिने पैर की एड़ी गुदाद्वार-जननेंद्री के नीचे टिकी होगी। बाएं पैर पर संतुलन बनाते हुए हथेलियां, सिर और कंधे को सीधा एक ही सीध में रखें। इसे वृक्षासन भी कहते हैं। जब तक इस आसन की स्थिति में आसानी से संतुलन बनाकर रह सकते हैं सुविधानुसार उतने समय तक रहें। एक पैर से दो या तीन बार किया जा सकता है।

एक पैर उठाकर -

किसी समतल स्थान पर दरी बिछाकर सीधे लेट जाएं। अपने एक हाथ को हर्निया वाली जगह पर रखें। उसके बाद अपने दाहिने पैर को उठाएं और ऊपर से नीचे की तरफ लाएं। इस प्रक्रिया को करते समय ध्यान रखें पैर जमीन से नहीं लगने चाहिए। इस प्रक्रिया को कम से कम दस बार करें। उसके बाद अपने बाएं पैर को उठाएं और उसी प्रक्रिया को दोहराएं। आप चाहें तो इस योग की अवधि को अपनी सुविधानुसार बढ़ा और घटा सकते हैं। इससे आपके पेट के निचले हिस्से की मांसपेशियों को मजबूती मिलती है।

लेग क्रॉसिंग-

पीठ के बल समतल स्थान पर लेट जाएं। हाथों को हर्निया वाली जगह पर रखें। उसके बाद दोनों पैरों को जमीन से लगभग दो फीट ऊपर उठाएं। जब हम अपने दाहिने पैर को ऊपर उठाएंगे तो बायां पैर नीचे होना चाहिए और जब बायां पैर उठाएंगे तो दायां पैर नीचे होना चाहिए। इस प्रक्रिया को कम से कम दस बार दोहराएं। इस प्रक्रिया को करने के बाद पैरों को नीचे रखकर आराम करें।






10.2.17

हाइड्रोसील(अंडकोष वृद्धि) के घरेलू और होम्योपैथिक उपचार


हाइड्रोसील ( Hydrocele )
हाइड्रोसील पुरुषों का रोग है जिसमे इनके एक या दोनों अंडकोषों में पानी भर जाता है. इस रोग में अंडकोष एक थैली की भांति फुल जाते हैं और गुब्बारें की तरह प्रतीत होते है. इस अवस्था को प्रोसेसस वजायनेलिस या पेटेंट प्रोसेसस वजायनेलिस भी कहा जाता है. ये स्थिति पुरुषों के लिए बहुत पीडादायी होती है. अंडकोष में अधिक पानी भर जाने के कारण इन्हें वहाँ सुजन भी हो जाती है. वैसे तो ये किसी को भी हो सकती है किन्तु अकसर ये रोग 40 से अधिक उम्र के पुरुषों में ही देखा जाता है. इसका उपचार करने के लिए जरूरी है कि इस पानी को बाहर निकाला जाएँ

जब अंडकोष में अधिक पानी भर जाता है तो अंडकोष गुब्बारे की तरह फुला हुआ दिखाई देता है। हाइड्रोसील की चिकित्‍सा में पानी निकालने की आवश्‍यकता होती है, अंडकोष में अधिक पानी भर जाने से सूजन और दर्द की शिकायत हो सकती है।
अंडकोष में सूजन या पानी भरना कई कारणों से होता है। अंडकोष पर चोट लगना, नसों का सूज जाना, स्वास्‍थ्‍य समस्‍याओं के कारण भी अंडकोष में सूजन आ सकती है।
कुछ लोगों में हाइड्रोसील की समस्‍या वंशानुगत या जन्मजात भी हो सकती है। जन्मजात हाइड्रोसील नवजात बच्चे में होता है और जन्‍म पहले वर्ष में समाप्त हो सकता है। वैसे तो यह समस्‍या किसी भी उम्र में हो सकती है लेकिन 40 वर्ष के बाद इसकी शिकायत अक्‍सर देखी जाती है। कभी-कभी अंडकोष की सूजन में दर्द बिल्कुल भी नही होता और कभी होता है और वह बढ़ता रहता है।



हाइड्रोसील के कारण लक्षण और इलाज

हाइड्रोसील के कारण ( Causes of Hydrocele ) :- अंडकोष पर चोट

- नसों का सूजना
- भारी वजन उठाने
- दूषित मल के इक्कठा होने
- गलत खानपा

- स्वास्थ्य समस्यायें
- बिना लंगोट के जिम / कसरत करना
- आनुवांशिक
- अधिक शारीरिक संबंध बनाना

हाइड्रोसील के लक्षण (Symptoms of Hydrocele) :

अंडकोषों में तेज दर्द (शुरूआती लक्षण)
अंडकोष के आगे का भाग सूजना
चलने फिरने में दिक्कत
ज्ञानेन्द्रियों की नसों का ढीला और कमजोर पड़ना
उल्टी, दस्त और कब्ज होना 
हाइड्रोसील का उपचार ( Treatment for Hydrocele ) :
हाइड्रोसील के उपचार के रूप में अधिकतर रोगी इसकी सर्जरी या एस्पीरेशन कराते है. जिसमे बहुत धन समय लगता है साथ ही इसके कुछ अन्य परिणाम भी हो सकते है. किन्तु इस रोग से उपचार के रूप में रोगी कुछ प्राकृतिक आयुर्वेदिक उपायों को भी अपना सकते है. ऐसे ही कुछ उपायों के बारे में आज हम आपको बता रहें है जिनका उपयोग करने आप घर बैठे इस रोग से मुक्ति पा सकते हो.

काटेरी की जड़ ( Roots of Kateri ) : 
अंडकोषों में पानी भर जाने पर रोगी 10 ग्राम काटेरी की जड़ को सुखाकर उसे पीस लें. फिर उसके पाउडर / चूर्ण में 7 ग्राम की मात्रा में पीसी हुई काली मिर्च डालें और उसे पानी के साथ ग्रहण करें. इस उपाय को नियमित रूप से 7 दिन तक अपनाएँ. ये हाइड्रोसील का रामबाण इलाज माना जाता है क्योकि इससे ये रोग जड़ से खत्म हो जाता है और दोबारा अंडकोषों में पानी नही भरता.
सूर्यतप्त जल ( Make Water Warm Under Sunrays ) : रोगी 25 मिलीलीटर पानी को पीतल के गिलास या पिली बोतल में सूरज की रोशनी में गर्म करें और उस पानी का दिन में 4 से 5 बार ग्रहण करना चाहियें. जलतप्त पानी पीने के 1 घंटे बाद रोगी अपने अंडकोष पर लाल प्रकाश डालें और अगले 2 घंटे बाद नीला प्रकाश डालें. इस प्रक्रिया को अपनाने से भी रोगी को हाइड्रोसील से जल्द ही आराम मिलता है
 हाइड्रोसील के इलाज के लिए आयुर्वेद में मुख्य रूप से लेप का इस्तेमाल किया जाता है इसलिए आप कुछ लेप का इस्तेमाल कर भी इस रोग से मुक्त हो सकते हो.
5 ग्राम काली मिर्च और 10 ग्राम जीरा लें और उन्हें अच्छी तरह पीस लें. इसमें आप थोडा सरसों या जैतून का तेल मिलाएं और इसे गर्म कर लें. इसके बाद इसमें थोडा गर्म पानी मिलाकर इसका पतला घोल बना लें और इसे बढे हुए अंडकोषों पर लगायें. इस उपाय को सुबह शाम 3 से 4 दिन तक इस्तेमाल करें आपको जरुर लाभ मिलेगा.
आप 20 ग्राम माजूफल और 5 ग्राम फिटकरी को पीसकर उनका लेप तैयार करें और उसे सूजे हुए अंडकोषों पर लगायें. जल्द ही उनका पानी सुख जायेगा.

स्नान ( Bath ) : 
हाइड्रोसील के रोगियों के उपचार में स्नान भी विशेष स्थान रखता है इसलिए इन्हें हमेशा गर्म पानी में नमक डालकर ही स्नान करना चाहियें. इसके अलावा रोगी कटिस्नान, सूर्यस्नान और मेह्स्नान भी ले सकता है. इससे रोगी को जल्द ही आराम मिलता है.
इन सब प्राकृतिक उपायों से हाइड्रोसील / अंडकोष में वृद्धि जैसी समस्या का समाधान किया जाता है. इन उपायों को अपनाने के साथ साथ रोगी को रोज सुबह खुली हवा में व्यायाम भी करना चाहियें. इन प्राकृतिक उपायों में ना तो अधिक धन व्यय करने की आवश्यकता होती है और ना ही इनसे किसी तरह के साइड इफ़ेक्ट का ही ख़तरा होता है. ये इस रोग को जड़ से समाप्त कर देते है जिससे इसके दोबारा होने की संभावना

· संतरे का रस ( Orange and Pomegranate Juice ) : 
रोगी रोजाना 15 से 20 दिनों तक दिन में 2 बार संतरे या अनारे के रस का सेवन करें. साथ ही सलाद में भी कच्चा नींबू डालकर खायें. ये हाइड्रोसील की सफल प्राकृतिक चिकित्सा है. इसके साथ ही रोगी को उपवास भी रखने चाहियें. इससे भी अंडकोषों में जलभराव कम होता है.
नमक मिले गर्म पानी का स्नान
हाइड्रोसील के रोगियों के उपचार में स्नान भी विशेष महत्व रखता है. इसलिए इन्हें हमेशा गर्म पानी में नमक डालकर ही स्नान करना चाहियें. इसके अलावा रोगी कटिस्नान, सूर्यस्नान और मेह्स्नान भी ले सकता है. इससे रोगी को जल्द ही आराम मिलता है.





पल्सेटिला 30- सूजाक के बाद अण्डकोषों में पानी भर जाये, हाथ-पैरों से दहक निकले, प्यास न लगे- इन लक्षणों में दें ।
फॉस्फोरस 30- पहले अण्डकोषों में सूजन आई हो, फिर उनकी वृद्रि हो गयी हो तो यह दवा देनी चाहिये ।
ऑरम मेट 200- दाँये अण्डकोष का बढ़ जाना, सूजन, दर्द होना- इन लक्षणों में दें । मानसिक अवसाद और जीवन से ऊब- यह लक्षण भी हों तो यह दवा अति लाभकारी है ।
स्पांजिया 30, 200- बाँये अण्डकोष का बढ़ जाना, सूजन, दर्द होनाಳ್ಗೆ । इसमें दर्द चुभने की तरह होता है और अण्डकोष लटक जाता है |
रोडोडेण्ड्रॉन 200, 1M- दोनों अण्डकोषों के फूल जाने पर उपयोगी है। इसमें अण्डकोष कड़े हो जाते हैं, उनमें खिंचाव होता है, दर्द भी रहता है जो जाँघों तक फैल जाता है ।

आर्सेनिक 6– गण्डमाला धातु वाले बच्चों को रोग होने पर इस दवा का प्रयोग लाभकारी सिठ्द्र होता है ।

एपिस मेल 30- अण्डकोषों में लाली, सूजन, जलन और डंक मारने जैसा दर्द होने की अवस्था में इस दवा का प्रयोग करना चाहिये
साइलीशिया 30, 200- जब रोगी ठण्ड महसूस करता हो, रोग एकादशी से लेकर पूर्णिमा या अमावस्या तक बढ़े- इन लक्षणों में दें ।
ग्रेफाइटिस 30– किसी भी प्रकार के चर्म-रोग के दब जाने के कारण अण्डकोष-वृद्धि हो जाने पर लाभप्रद है ।इन सब प्राकृतिक उपायों से हाइड्रोसील या अंडकोष (Hydrocele) में वृद्धि जैसी समस्या का समाधान किया जाता है. इन उपायों को अपनाने के साथ साथ रोगी को रोज सुबह खुली हवा में व्यायाम भी करना चाहियें. इन प्राकृतिक उपायों में ना तो अधिक धन व्यय करने की आवश्यकता होती है. ना ही इनसे किसी तरह के दुष्प्रभाव का ही ख़तरा होता है. ये इस रोग को जड़ से ख़त्म कर देते है. जिससे इसके दोबारा होने की संभावना भी कम हो जाती है.

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9.2.17

बहेड़ा के औषधीय उपयोग//Medicinal use of bahera

   

बहेड़ा या बिभीतक (Terminalia bellirica) के पेड़ बहुत ऊंचे, फैले हुए और लंबे होते हैं। इसके पेड़ 18 से 30 मीटर तक ऊंचे होते हैं जिसकी छाल लगभग 2 सेंटीमीटर मोटी होती है। इसके पेड़ पहाडों और ऊंची भूमि में अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। इसकी छाया स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होती है। इसके पत्ते बरगद के पत्तों के समान होते हैं तथा पेड़ लगभग सभी प्रदेशों में पाये जाते हैं। इसके पत्ते लगभग 10 सेंटीमीटर से लेकर 20 सेंटीमीटर तक लम्बे तथा और 6 सेंटीमीटर से लेकर 9 सेंटीमीटर तक चौडे़ होते हैं। इसका फल अण्डे के आकार का गोल और लम्बाई में 3 सेमी तक होता है, जिसे बहेड़ा के नाम से जाना जाता है। इसके अंदर एक मींगी निकलती है, जो मीठी होती है। औषधि के रूप में अधिकतर इसके फल के छिलके का उपयोग किया जाता है।
हिन्दी बहेड़ा
संस्कृत विभीतक
बंगाली बहेड़े
कर्नाटकी तारीकायी
मलयालम तान्नि
तमिल अक्कनडं
तेलगू बल्ला
फारसी वलैले
लैटिन टर्मिनेलिया बेलेरिका
अंग्रेजी बेलेरिक मिरोबोलम
मराठी बहेड़ा
गुजराती बहेड़ां
बहेड़े का पेड़ जंगलों और पहाड़ों पर होता है। इसके पत्ते बरगद के पत्तों के समान होते हैं। इसके फूल बहुत ही छोटे-छोटे होते हैं। इसके फल वरना के गुच्छों के फल के समान गुच्छों में लगते हैं। बहेड़े की छाल का उपयोग औषधि के रूप में किया जाता है। बहेड़ा शीतल होता है।





गुण

बहेड़ा कब्ज को दूर करने वाला होता है। यह मेदा (आमाशय) को शक्तिशाली बनाता है, भूख को बढ़ाता है, वायु रोगों को दस्तों की सहायता से दूर करता है, पित्त के दोषों को भी दूर करता है, सिर दर्द को दूर करता है, बवासीर को खत्म करता है, आंखों व दिमाग को स्वस्थ व शक्तिशाली बनाता है, यह कफ को खत्म करता है तथा बालों की सफेदी को मिटता है। बहेड़ा-कफ तथा पित्त को नाश करता है तथा बालों को सुन्दर बनाता है। यह स्वर भंग (गला बैठना) को ठीक करता है। यह नशा, खून की खराबी और पेट के कीड़ों को नष्ट करता है तथा क्षय रोग (टी.बी) तथा कुष्ठ (कोढ़, सफेद दाग) में भी बहुत लाभदायक होता है।

थायरायड रोग के आयुर्वेदिक उपचार 

*आयुर्वेदिक मतानुसार
बहेड़ा रस में मधुर, कषैला, गुण में हल्का, खुश्क, प्रकृति में गर्म, विपाक में मधुर, त्रिदोषनाशक, उत्तेजक, धातुवर्द्धक, पोषक, रक्तस्तम्भक, दर्द को नष्ट करने वाला तथा आंखों के लिए गुणकारी होता है। यह कब्ज, पेट के कीड़े, सांस, खांसी, बवासीर, अपच, गले के रोग, कुष्ठ, स्वर भेद, आमवात, त्वचा के रोग, कामशक्ति की कमी, बालों के रोग, जुकाम तथा हाथ-पैरों की जलन में लाभकारी होती है।
बहेड़े की मींगी :
 बहेड़े की मींगी प्यास को मिटाती है। यह उल्टी को रोकती है, कफ को शांत करती है तथा वायु दोषों को दूर करती है। यह हल्की, कषैली और नशीली होती है। आंवला की मींगी के गुण भी इसी के समान होता है। इसका सुरमा आंखों के फूले को दूर करता है।
विभिन्न रोंगों का बहेड़ा का उपयोग
आंखों की रोशनी बढ़ाने के लिए :- 



बहेड़े का छिलका और मिश्री बराबर मात्रा में मिलाकर एक चम्मच सुबह-शाम गर्म पानी से लेने से दो-तीन सप्ताह में आंखों की रोशनी बढ़ जाती है।

कब्ज :-
 बहेड़े के आधे पके हुए फल को पीस लेते हैं। इसे रोजाना एक-एक चम्मच की मात्रा में थोड़े से पानी से लेने से पेट की कब्ज समाप्त हो जाती है और पेट साफ हो जाता है।
श्वास या दमा :-
बहेड़े और धतूरे के पत्ते बराबर मात्रा में लेकर पीस लेते हैं इसे चिलम या हुक्के में भरकर पीने से सांस और दमा के रोग में आराम मिलता है। बहेड़े को थोड़े से घी से चुपड़कर पुटपाक विधि से पकाते हैं। जब वह पक जाए तब मिट्टी आदि हटाकर बहेड़ा को निकाल लें और इसका वक्कल मुंह में रखकर चूसने से खांसी, जुकाम, स्वरभंग (गला बैठना) आदि रोगों में बहुत जल्द आराम मिलता है। 40 ग्राम बहेड़े का छिलका, 2 ग्राम फुलाया हुआ नौसादर और 1 ग्राम सोनागेरू लें। अब बहेड़े के छिलकों को बहुत बारीक पीसकर छान लें और उसमें नौसादर व गेरू भी बहुत बारीक करके मिला देते हैं। इसे सेवन करने से सांस के रोग में बहुत लाभ मिलता है। मात्रा : उपयुर्क्त दवा को 2-3 ग्राम तक शहद के साथ सुबह-शाम सेवन करना चाहिए। इससे दमा रोग ठीक हो जाता है।
*10 ग्राम बहेड़े के फल का गूदा लेकर पीसकर छान लें और फिर इसमें 10 ग्राम फूलाया हुआ नौसादर और 5 ग्राम असली सोनागेरू लेकर पीसकर मिला दें। अब इस तैयार सामग्री को 3 ग्राम रोजाना सुबह व शाम को शहद में मिलाकर चाटने से सांस लेने में फायदा मिलता है तथा इससे धीरे-धीरे दमा भी खत्म हो जाता है।बहेड़े के छिलकों का चूर्ण बनाकर बकरी के दूध में पकायें और ठण्डा होने पर शहद के साथ मिलाकर दिन में दो बार रोगी को चटाने से सांस की बीमारी दूर हो जाती है।
* बंदगांठ :- 
अरंडी के तेल में बहेड़े के छिलके को भूनकर तेज सिरके में पीसकर बंदगाठ पर लेप करने से 2-3 दिन में ही बंदगांठ बैठ जाती है।
*पित्त की सूजन : –
 बहेड़े की मींगी का लेप करने से पित्त की सूजन दूर हो जाती है। आंख की पित्त की सूजन पर बहेड़े का लेप करने से लाभ मिलता है।
*ज्वर(बुखार) : –
40 से 60 मिलीलीटर बहेड़े का काढा़ सुबह-शाम पीने से पित्त, कफ, ज्वर आदि रोगों में लाभ मिलता है।
* खुजली :- 
फल की मींगी का तेल खुजली के रोग में लाभकारी होता है तथा यह जलन को मिटाता है। इसकी मालिश से जलन और खुजली मिट जाती है।
* अपच :- 
भोजन करने के बाद 3 से 6 ग्राम विभीतक (बहेड़ा) फल की फंकी लेने से भोजन पचाने की क्रिया तेज होती है। इससे आमाशय को ताकत मिलती है।
* खांसी :- 



*एक बहेड़े के छिलके का टुकड़ा या छीले हुए अदरक का टुकड़ा सोते समय मुंह में रखकर चूसने से बलगम आसानी से निकल जाता है। इससे सूखी खांसी और दमा का रोग भी मिट जाता है। 3 से 6 ग्राम बहेड़े का चूर्ण सुबह-शाम गुड़ के साथ खाने से खांसी के रोग में बहुत लाभ मिलता है। बहेड़े की मज्जा अथवा छिलके को हल्का भूनकर मुंह में रखने से खांसी दूर हो जाती है। या 250 ग्राम बहेड़े की छाल, 15 ग्राम नौसादर भुना हुआ, 10 ग्राम सोना गेरू को एक साथ पीसकर रख लेते हैं। यह 3 ग्राम चूर्ण शहद में मिलाकर खाने से सांस का रोग ठीक हो जाता है।

* कनीनिका प्रदाह :-
 2 भाग पीली हरड़ के बीज, 3 भाग बहेड़े के बीज और 4 आंवले की गिरी को एक साथ पीसकर और छानकर पानी में भिगोकर गोली बनाकर रख लें। जरूरत पड़ने पर इसे पानी या शहद में मिलाकर आंखों में रोजाना 2 से 3 बार लगाने से कनीनिका प्रदाह का रोग दूर हो जाता है।
*. बालों के रोग :-
 2 चम्मच बहेड़े के फल का चूर्ण लेकर एक कप पानी में रात भर भिगोकर रख देते हैं और सुबह इसे बालों की जड़ पर लगाते हैं। इसके एक घंटे के बाद बालों को धो डालते हैं। इससे बालों का गिरना बंद हो जाता है।
*अतिसार (दस्त):-
 *बहेड़ा के फलों को जलाकर उसकी राख को इकट्ठा कर लेते हैं। इसमें एक चौथाई मात्रा में कालानमक मिलाकर एक चम्मच दिन में दो-तीन बार लेने से अतिसार के रोग में लाभ मिलता है।
* पेचिश :-
 बहेड़ा के छिलके का चूर्ण एक चम्मच शहद के साथ सुबह-शाम नियमित रूप से लेने से पीलिया का रोग दूर हो जाता है।
* मुंहासे :-
 बीजों की गिरी का तेल रोजाना सोते समय मुंहासों पर लगाने से मुंहासे साफ हो जाते हैं और चेहरा साफ हो जाता है।
* शक्ति बढ़ाने के लिए :- 
आंवले के मुरब्बे के साथ बहेड़ा को रोजाना सुबह-शाम सेवन करने से शरीर मजबूत और शक्तिशाली हो जाता है।




* बच्चों का मलावरोध (मल रुकने) पर :-
 बहेडे़ का फल पत्थर से पीसकर आधा चम्मच की मात्रा में एक चम्मच दूध के साथ बच्चे को सेवन कराने से पेट साफ हो जाता है।
*कोढ़ (कुष्ठ रोग) और पेचिश : –
 बहेड़े के पेड़ की छाल का काढ़ा स्वित्र कोढ़ और पेचिश को नष्ट करता है।
* सीने का दर्द :- 
सीने के दर्द में बहेड़ा जलाकर चाटना लाभकारी होता है।
* हिचकी का रोग :-
 10 ग्राम बहेड़े की छाल के चूर्ण में 10 ग्राम शहद मिलाकर रख लें। इसे थोड़ा-थोड़ा करके चाटने से हिचकी बंद हो जाती है।36 गले के रोग में :- बहेड़े का छिलका, छोटी पीपल और सेंधानमक को बराबर मात्रा में लेकर और पीसकर 6 ग्राम गाय के दही में या मट्ठे में मिलाकर खाने से स्वर-भेद (गला बैठना) दूर हो जाता है।
बहेड़े की छाल को आग में भूनकर चूर्ण बना लें इस चूर्ण को लगभग 480 मिलीग्राम तक्र (मट्ठा) के साथ सेवन करने से स्वरभेद (गला बैठना) ठीक हो जाता है।
*कमजोरी :-
 लगभग 3 से 9 ग्राम बहेड़ा का चूर्ण सुबह-शाम शहद के साथ सेवन करने से कमजोरी दूर होती है और मानसिक शक्ति बढ़ती है।
* दिल की तेज धड़कन :-
 बहेड़ा के पेड़ की छाल का चूर्ण दो चुटकी रोजाना घी या गाय के दूध के साथ सेवन करने से दिल की धड़कन सामान्य हो जाती है।
* स्वर यंत्र में जलन : – 
3 ग्राम से 9 ग्राम बहेड़ा का चूर्ण सुबह और शाम शहद के साथ सेवन करने से स्वरयंत्र शोथ (गले में सूजन) और गले में जलन दूर हो जाती है। साथ ही इसके सेवन से गले के दूसरे रोग भी ठीक हो जाते हैं।:
     इस आर्टिकल में दी गयी जानकारी आपको अच्छी और लाभकारी लगी हो तो कृपया लाईक ,कमेन्ट और शेयर जरूर कीजियेगा । आपके एक शेयर से किसी जरूरतमंद तक सही जानकारी पहुँच सकती है और हमको भी आपके लिये और अच्छे लेख लिखने की प्रेरणा मिलती है|