21.2.17

फाइलेरिया , श्लीपद,हाथीपांव के उपचार (Elephantiasis Treatment)


 यह रोग उन स्थानों के निवासियों में ज्यादातर होता है, जिन स्थानों में जल का प्रभाव ज्यादा हो, जहां वर्षा ज्यादा समय तक ज्यादा मात्रा में होती हो, शीतलता ज्यादा रहती हो, जहां के जलाशय गन्दे हों। फाइलेरिया (Lymphatic Filariasis) एक परजीवीजन्य संक्रामक बीमारी है जो धागे जैसे कृमियों से होती है। वैश्विक स्तर पर इसे एक उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारी (Neglected Tropical Disease) माना जाता है। फाइलेरिया दुनिया भर के उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय देशों में एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या है। जिसमें भारत भी शामिल है। विश्व में लगभग 1.3 अरब लोगों को इस बीमारी के संक्रमण का खतरा है और लगभग 12 करोड़ लोग इससे वर्तमान में संक्रमित हो चुके हैं, जिनमें से लगभग 4 करोड़ लोग इस बीमारी की वजह से किसी विकृति का शिकार हो गए हैं या अक्षम हो चुके हैं।
*फाइलेरिया 2.5 करोड़ से ज्यादा पुरुषों को जननांग के विकार और 1.5 करोड़ से ज्यादा लोगों को सूजन से प्रभावित कर चुका है। हाथीपांव (Elephantiasis) फाइलेरिया का सबसे सामान्य लक्षण है जिसमें शोफ (Oedema) के साथ चमड़ी तथा उसके नीचे के ऊतक मोटे हो जाते हैं।
वातज श्लीपद : 
वात के कुपित होने पर हुए श्लीपद रोग में त्वचा रूखी, मटमैली, काली और फटी हुई हो जाती है, तीव्र पीड़ा होती है, अकारण दर्द होता रहता है एवं तेज बुखार होता है।

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पित्तज श्लीपद :
 इसमें कुपित पित्त का प्रभाव रहता है। रोगी की त्वचा पीली व सफेद हो जाती है, नरम रहती है और मन्द-मन्द ज्वर होता रहता है।
कफज श्लीपद : 
इसमें कफ कुपित होने का प्रभाव होता है। त्वचा चिकनी ,पीली, सफेद हो जाती है, पैर भारी और कठोर हो जाता है। ज्वर होता भी है और नहीं भी होता।
फाइलेरिया से बचाव (Treatment of Elephantiasis)
*ऐसे कपड़े पहनें जिनसे पाँव और बांह पूरी तरह से ढक जाएं।
*आवश्यकता पड़े तो पेर्मेथ्रिन युक्त (पेर्मेथ्रिन एक आम सिंथेटिक रासायनिक *कीटनाशक होता है) कपड़ों का उपयोग करें। बाजार में पेर्मेथ्रिन युक्त कपड़े मिलते हैं।
*मच्छरों को मारने के लिए कीट स्प्रे का छिड़काव करें।
इ*लाज बीमारी की प्रारंभिक अवस्था में ही शुरू हो जाना चाहिए।



*मच्छरों से बचाव फाइलेरिया (Hathipaon) को रोकने का एक प्रमुख उपाय है। क्यूलेक्स मच्छर जिसके कारण फाइलेरिया का संक्रमण फैलता है आम तौर पर शाम और सुबह के वक्त काटता है।

*किसी ऐसे क्षेत्र में जहां फाइलेरिया फैला हुआ है वहां खुद को मच्छर के काटने से बचाना चाहिए।
कैसे फैलता है फाइलेरिया?
फाइलेरिया मच्छरों से फैलता है जो परजीवी कृमियों के लिए रोगवाहक का काम करते हैं। इस परजीवी के लिए मनुष्य मुख्य पोषक है जबकि मच्छर इसके वाहक और मध्यस्थ पोषक हैं। कृमि प्रभावित क्षेत्रों से लोगों का रोजगार की तलाश में बाहर जाना, शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, अज्ञानता, आवासीय सुविधाओं की कमी और स्वच्छता की अपर्याप्त स्थिति से यह संक्रमण फैलता है। संक्रमण के बाद कृमि के लार्वा संक्रमित व्यक्ति की रक्तधारा में बहते रहते हैं जबकि वयस्क कृमि मानव लसीका तंत्र में जगह बना लेता है। एक वयस्क कृमि की आयु सात वर्ष तक हो सकती है।
क्या हैं फाइलेरिया के लक्षण?
इस तथ्य का अभी तक सटीक आकलन नहीं किया जा सका है कि संक्रमण के बाद फाइलेरिया के लक्षण प्रकट होने में कितना समय लगता है। हालांकि मच्छर के काटने के 16-18 महीनों के पश्चात बीमारी के लक्षण प्रकट होते हैं। फाइलेरिया के ज्यादातार लक्षण और संकेत वयस्क कृमि के लसीका तंत्र में प्रवेश के कारण पैदा होते हैं। कृमि द्वारा ऊतकों को नुकसान पहुंचाने से लसीका द्रव का बहाव बाधित होता है जिससे सूजन, घाव और संक्रमण पैदा होते हैं। पैर और पेड़ू सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले अंग हैं। फाइलेरिया का संक्रमण सामान्य शारीरिक कमजोरी, सिरदर्द, मिचली, हल्के बुखार और बार-बार खुजली के रूप में प्रकट होता है।



कैसे फाइलेरिया का पता लगाया जाता है?

फाइलेरिया परजीवी के माइक्रोफाइलेरि (Microfiliariae) रक्त में सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखे जा सकते हैं। माइक्रोफाइलेरि मध्यरात्रि के समय लिए गए रक्त के नमूनों में देखे जा सकते हैं क्योंकि दुनिया के अधिकांश हिस्सों में इन परजीवियों में ‘निशाचरी आवधिकता’ (Nocturnal Periodicity) देखी जाती है जिससे रक्त में इनकी उपस्थिति मध्य रात्रि के आसपास के कुछ घंटों तक ही सीमित रहती है। यह भी देखा गया है कि रक्त में इस परजीवी की उपस्थिति मरीज के सोने की आदतों पर भी निर्भर करती है।
फाइलेरिया की पहचान में सीरम संबंधी तकनीकें माइक्रोस्कोपिक पहचान का विकल्प हैं। सक्रिय फाइलेरिया संक्रमण के मरीजों के रक्त में फाइलेरियारोधी आईजी जी 4 (Immunoglobulin G 4) का स्तर बढ़ा हुआ रहता है जिसका सामान्य तरीकों से पता लगाया जा सकता है।
*फाइलेरिया कभी-कभार ही जानलेवा साबित होता है, हालांकि इससे बार-बार संक्रमण, बुखार, लसीका तंत्र में गंभीर सूजन और फेफड़ों की बीमारी ‘ट्रॉपिकल पल्मोनरी इओसिनोफीलिया (Tropical Pulmonary Eosinophilia) हो जाती है। ट्रॉपिकल पल्मोनरी इओसिनोफीलिया के लक्षणों में खांसी, सांस लेने में परेशानी और सांस लेने में घरघराहट की आवाज होती है। लगभग 5 प्रतिशत मामलों में पैरों में सूजन आ जाती है जिसे फ़ीलपांव अथवा हाथीपांव कहते हैं। फाइलेरिया से गंभीर विकृति, चलने-फिरने में परेशानी और लंबी अवधि की विकलांगता हो सकती है।
*फाइलेरिया के कारण हाइड्रोसील (Hydrocoele) भी हो सकता है। मरीज के वृषणकोष (Scrotum) में सूजन भी आ सकती है जिसे ‘फाइलेरियल स्क्रोटम’ (Filarial scrotum) कहा जाता है। कुछ मरीजों में मूत्र का रंग दूधिया हो जाता है। महिलाओं में वक्ष या बाह्य जननांग भी प्रभावित होते हैं। कुछ मामलों में पेरिकार्डियल स्पेस (हृदय और उसके झिल्लीदार आवरण के बीच की जगह) में भी द्रव जमा हो जाता है।
घरेलू उपाय, उपचार
*कीटाणुरोधक और मच्छरदानी का प्रयोग करें।
*उचित स्वास्थ्यवर्धक स्थितियाँ बनाए रखें।
*सूजे हिस्से को प्रतिदिन साबुन और पानी से सावधानीपूर्वक स्वच्छ करें।
*लसिका प्रवाह बढ़ाने के लिए सूजे हुए हाथ या पैर को ऊपर उठा कर व्यायाम करें।
*बैक्टीरिया रोधी और फफूंद नाशक क्रीमों के प्रयोग से घावों को संक्रमण रहित करें।
*धतूरा, एरण्ड की जड़, सम्हालू, सफेद पुनर्नवा, सहिजन की छाल और सरसों, इन सबको समान मात्रा में पानी के साथ पीसकर गाढ़ा लेप तैयार करें। इस लेप को श्लीपद रोग से प्रभावित अंग पर प्रतिदिन लगाएं। इस लेप से धीरे-धीरे यह रोग दूर हो जाता है।
*चित्रक की जड़, देवदार, सफेद सरसों, सहिजन की जड़ की छाल, इन सबको समान मात्रा में, गोमूत्र के साथ, पीसकर लेप करने से धीरे-धीरे यह रोग दूर हो जाता है।
*बड़ी हरड़ को एरण्ड (अरण्डी) के तेल में भून लें। इन्हें गोमूत्र में डालकर रखें। यह 1-1 हरड़ सुबह-शाम खूब चबा-चबाकर खाने से धीेरे-धीरे यह रोग दूर हो जाता है।



लेने योग्य आहार

कम-वसा, प्रोटीन की अधिकता वाला आहार लाभकारी होता है।
तरल पदार्थों की पर्याप्त मात्रा लें।
प्रोबायोटिक (पाचन में सहायक लाभकारी बैक्टीरिया)।
ओरिगानो (एक वनस्पतीय औषधि)।
विटामिन सी युक्त भोज्य पदार्थ।
स्थितियों के ठीक होने के लिए वसायुक्त और मसालेदार आहार ना लें।
पथ्य : लहसुन, पुराने चावल, कुल्थी, परबल, सहिजन की फली, अरण्डी का तेल, गोमूत्र तथा सादा-सुपाच्य ताजा भोजन। उपवास, पेट साफ रखना।

*परहेज- दूध से बने पदार्थ, गुड़, मांस, अंडे तथा भारी गरिष्ट व बासे पदार्थों का. सेवन न करें। आलस्य, देर तक सोए रहना, दिन में सोना आदि |

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20.2.17

मालकाँगनी के औषधीय प्रयोग


मालकांगनी (Staff Tree) :
परिचय : 1. इसे ज्योतिष्मती (संस्कृत), मालकांगनी (हिन्दी), मालकागोणी (मराठी), मालकांगणी (गुजराती), बालुलवे (तमिल), तैलान (अरबी) तथा सिलेक्ट्रस पैनिक्यूलेटा (लैटिन) कहते हैं।
मालकांगनी की बेल भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में विशेषकर कश्मीर और पंजाब आदि में अधिक मात्रा में पाई जाती है। इसकी बेल दूसरे पेड़ों पर चढ़कर फलती-फूलती है। इसकी झुकी हुई नई शाखाओं पर सफेद बिन्दु के समान धब्बे होते हैं। इसके पत्ते नुकीले, लट्वाकार, 5 से 10 सेमी लंबे और 6-7 सेमी चौडे़ होते हैं। इसमें फूल नई पत्तियों के साथ अप्रैल-जून में आते हैं और शरद ऋतु में फल लगते और पकते हैं।
मालकांगनी के बारे में एक बात कही जाती है कि “ एक तरह सभी टॉनिक जैसे कि च्यवनप्राश,होर्लिक्स, सुप्लिमेंट और बूट इत्यदि रख दें तथा दूसरी तरफ मालकांग नी को रख दें तब भी वे सारे मिलकर मालकांगनी का मुकाबला नहीं कर सकते. सर्दियों में तो इसे अद्वितीय टॉनिक माना जाता है. इसके गुण और क्षमता सोना चाँदी च्यवनप्राश इत्यादि टॉनिकों से हजार गुना अच्छी और बेहतर है.
दरअसल ये मालकांगनी के पौधे के बीजों से तैयार होती है और हर जगह किसी भी जड़ी बूटी वाले की दूकान पर आसानी से मिल जाती है. इनके बीजों में एक तेल होता है जो गाढा तथा पीले रंग का होता है साथ ही इस तेल का स्वाद भी कडवा होता है. ध्यान रहें कि अगर आप बाजार से इसका तेल खरीदना चाहते है तो अच्छी तरह जांच कर लें क्योकि अधिकतर लोग इसका नकली तेल बेचते है. वैसे अच्छा रहेगा कि आप बाजार से इसके बीज ही खरीदें और खुद इसका तेल निकलवाएँ.
एक अन्य बात इसके बीज और तेल दोनों ही समान रूप से गुणी होते है. इसका हर बीज चने के आकार का होता है जिसमें 6 अन्य छोटे छोटे बीज भी पाये जाते है. साथ ही संस्कृत भाषां में इसे ज्योतिष्मती के नाम से जाना जाता है.
रंग : मालकांगनी के फूल पीले और हरे रंग के होते हैं।
स्वाद : इसका स्वाद कड़वा और तीखा होता है।
प्रकृति : मालकांगनी गर्म प्रकृति की होती है।

हानिकारक :

इसके बीजों का अधिक मात्रा में सेवन करने से उल्टी या दस्त का रोग हो सकता है। मालकांगनी का सेवन गर्म स्वभाव वाले व्यक्तियों के लिए हानिकारक हो सकता है।

मात्रा : 

मालकांगनी के बीजों का 1 से 2 ग्राम चूर्ण और रस 5 से 15 बूंद तक ले सकते हैं।

मालकांगनी के उपयोग ( Uses ) :

लिंग वृद्धि: 


भुने सुहागे को पीसकर मालकांगनी के तेल में मिलाकर लिंग पर सुबह-शाम मालिश करने से लिंग में सख्तपन और मोटापन बढ़ता है।
* शरीर का ताकतवर और शक्तिशाली बनाना:लगभग 250 ग्राम मालकांगनी को गाय के घी में भूनकर, इसमें 250 ग्राम शक्कर मिलाकर चूर्ण बना लें। अब इस चूर्ण को लगभग 6 ग्राम की मात्रा में गाय के दूध के साथ सुबह-शाम खाने से मनुष्य के शरीर में ताकत का विकास होता है। इसका सेवन लगभग 40 दिनों तक करना चाहिए।

* कमजोरी:

मालकांगनी के बीजों को दबाकर निकाला हुआ तेल, 2 से 10 बूंद को मक्खन या दूध में मिलाकर सुबह-शाम सेवन करने से दिमाग तेज होता है और कमजोरी मिट जाती है।
मालकांगनी के बीज को गाय के घी में भून लें। फिर इसमें इसी के समान मात्रा में मिश्री मिलाकर सुबह-शाम एक कप दूध के साथ सेवन करें। इससे शरीर की कमजोरी दूर हो जाती है।

नपुंसकता:

मालकांगनी के तेल की 10 बूंदे नागबेल के पान पर लगाकर खाने से नपुंसकता दूर हो जाती है। इसके सेवन के साथ दूध और घी का प्रयोग ज्यादा करें।
मालकांगनी के तेल को पान के पत्ते में लगाकर रात में शिश्न (लिंग) पर लपेटकर सो जाएं और 2 ग्राम बीजों को दूध की खीर के साथ सुबह-शाम सेवन करें। इससे नपुंसकता के रोग में लाभ मिलता है।
50 ग्राम मालकांगनी के दाने और 25 ग्राम शक्कर को आधा किलो गाय के दूध में डालकर आग पर चढ़ा दें। जब दूध का खोया बन जाये तब इसे उतारकर मोटी-मोटी गोली बनाकर रख लें और रोज 1-1 गोली सुबह-शाम गाय के दूध के साथ खाये। इससे नपुंसकता दूर होती है।
मालकांगनी के बीजों को खीर में मिलाकर खाने से नपुंसकता मिट जाती है।

स्मृति भ्रंश ( Alzimar’s Diseases ) : 

ये रोग बुढापे का रोग है इसमें व्यक्ति अपनी कही बात या कार्य को भूल जाता है, कुछ समय बात उसे बात याद आ जाती है तो अगले ही कुछ समय बात वो फिर से बात को भूल जाता है. किन्तु इस रोग से छुटकारा पाने के लिए इस औषधि का प्रयोग किया जा सकता है.

*वायुरोग :

औषधि के लिए इसके बीजों का तेल निकाला जाता है। व्यापार की दृष्टि से अधिक बीज लेकर कोल्हू या मशीन से तेल निकाल लेते हैं। इसके तेल की मालिश से सन्धियों की वेदना, पक्षाघात (लकवा), अर्दित, गृध्रसी (साइटिका) और कमर का दर्द दूर हो जाता है।


* नेत्र ज्योतिवर्द्धक

मालकांगनी के तेल की मालिश पैर के तलुवों पर रोजाना करते रहने से आंखों की रोशनी बढ़ जाती है।
* सिर में दर्द: मालकांगनी का तेल और बादाम के तेल को 2-2 बूंद की मात्रा में सुबह खाली पेट एक बताशे में डालकर खा लें और ऊपर से 1 कप दूध पियें। मालकांगनी का लगातार सेवन करने से पुराने सिर का दर्द और आधासीसी (माइग्रेन) के दर्द में आराम मिलता है।
*जीभ और त्वचा की सुन्नता: मालकांगनी (ज्योतिष्मती) के बीज पहले दिन 1 बीज तथा दूसरे रोज से 1-1 बीज बढ़ाते हुए 50 वें दिन में 50 बीज खायें तथा 50 वें दिन से 1-1 बीज कम करते हुए 1 बीज की मात्रा तक खायें। इसके प्रयोग से मूत्र की मात्रा बढ़ जाती है लेकिन इससे किसी भी प्रकार की हानि नहीं होती है तथा जीभ और त्वचा की सुन्नता ठीक होती है।

* दमा, श्वास:

 मालकांगनी के बीज और छोटी इलायची को बराबर मात्रा में पीसकर आधा चम्मच की मात्रा में शहद के साथ सुबह-शाम खाने से दमा के रोग में आराम मिलता है।

* बुद्धि और स्मृति बढ़ना: 

मालकांगनी के बीज, बच, देवदारू और अतीस आदि का मिश्रण बना लें। रोज सुबह-शाम 1 चम्मच घी के साथ पीने से दिमाग तेज और फूर्तीला बनता है। मालकांगनी तेल की 5-10 बूंद मक्खन के साथ सेवन करने से भी लाभ मिलता है।

* अनिद्रा (नींद का कम आना): 

मालकांगनी के बीज, सर्पगन्धा, जटामांसी और मिश्री को बराबर मात्रा में मिलाकर पीस लें। इसे 1 चम्मच की मात्रा में शहद के साथ खाने से अनिद्रा रोग (नींद का कम आना) में राहत मिलती है।

*सफेद दाग: 

मालकांगनी और बावची के तेल को बराबर मात्रा में मिलाकर एक शीशी में रख लें, इसको सफेद दागों पर रोजाना सुबह-शाम लगाने से लाभ मिलता है।



*अफीम की आदत छुड़ाने के लिए:
 मालकांगनी के पत्तों का रस एक चम्मच की मात्रा में 2 चम्मच पानी के साथ दिन में 3 बार रोगी को पिलाते रहने से अफीम की गन्दी आदत से छुटकारा पाया जा सकता है।
चालविभ्रम (कलाया खन्ज) : 
ज्योतिष्मती (मालकांगनी) के बीजों के काढ़े में 2 से 4 लौंग डालकर सेवन करना चाहिए। इसका 40 मिलीलीटर काढ़ा सुबह-शाम सेवन करने से चालविभ्रम रोग में लाभ पहुंचता है।
* उरूस्तम्भ (जांघ का सुन्न होना): 
10-15 मालकांगनी के तेल की बूंद के सेवन से शरीर की सुन्नता दूर हो जाती है और यह हड्डियों में पीव को खत्म करता है।
* नाखूनों का अन्दर की ओर बढ़ना: 
ज्योतिष्मती के बीजों को अच्छी तरह से पीसकर उसका लेप नाखून पर लगाने से नाखून की जलन व दर्द में राहत मिलती है।
* नाखूनों का जख्म: ज्योतिष्मती (मालकांगनी) के बीजों को पीसकर नाखून पर लेप करने से नाखूनों का जख्म ठीक होता है।
*. मिर्गी (अपस्मार):
 मालकांगनी के तेल में कस्तूरी को मिलाकर रोगी को चटाने से मिर्गी का दौरा आना बंद हो जाता है।
*. शरीर का सुन्न पड़ जाना: 
10 से 15 बूंद मालकांगनी के तेल का सेवन करने से शरीर की सुन्नता दूर हो जाती है।
* दाद: मालकांगनी को कालीमिर्च के बारीक चूर्ण के साथ पीसकर दाद पर मालिश करने से कुछ ही दिनों में दाद ठीक हो जाता है।
* खूनी बवासीर:
 इसके बीजों को गोमूत्र (गाय के पेशाब) में पीसकर खुजली वाले अंग पर नियमित लगाने से खूनी बवासीर में आराम मिलता है।
* खुजली: 
मालकांगनी के बीजों को गोमूत्र में पीसकर खुजली वाले अंग पर नियमित लगाने से खुजली में लाभ मिलता है।



* एक्जिमा: 
ज्योतिष्मती (मालकांगनी) के पत्तों को कालीमिर्च के साथ पीसकर लेप करने से एक्जिमा समाप्त हो जाता है।
*दिमाग के कीड़े:पहले दिन मालकांगनी का 1 बीज, दूसरे दिन 2 बीज और तीसरे दिन 3 बीज इसी तरह से 21 दिन तक बीज बढ़ायें और फिर इसी तरह घटाते हुए एक बीज तक ले आएं। इसके बीजों को निगलकर ऊपर से दूध पीने से दिमाग की कमजोरी नष्ट हो जाती है।
लगभग 3 ग्राम मालकांगनी के चूर्ण को सुबह और शाम दूध के साथ खाने से स्मरण शक्ति (याददाश्त) बढ़ती है।
* गठिया रोग:
20 ग्राम मालकांगनी के बीज और 10 ग्राम अजवायन को पीस-छानकर चूर्ण बनाकर रोजाना 1 ग्राम चूर्ण सुबह-शाम खाने से गठिया रोग (घुटनों का दर्द) में आराम होता है।
10-10 ग्राम मालकांगनी, काला जीरा, अजवाइन, मेथी और तिल को लेकर पीस लें फिर इसे तेल में पकाकर छानकर रख लें। इस तेल से कुछ दिनों तक मालिश करें। इससे गठिया रोग (घुटनों का दर्द) ठीक हो जाता है।
* बेरी-बेरी:
1 बताशे में मालकांगनी के बीजों को पानी में पीसकर बनी लुगदी (पेस्ट) को मस्सों पर लगाते रहने से खून का बहाव कम होता है।
शुरुआती बेरी-बेरी रोग में ज्योतिष्मती (मालकांगनी) तेल की 10 से 15 बूंद, दूध या मलाई के साथ मिलाकर सुबह-शाम पीने से यह रोग दूर हो जाता है।
*ज्योतिष्मती (माल कांगनी) के बीजों को सोंठ के साथ खाने से लाभ होता है। शुरुआत में 1 बीज और इसके बाद रोजाना 1-1 बीज की संख्या बढ़ाते हुए 50 बीज तक, सोंठ के साथ 50 दिन तक खायें। इसके बाद 50 वें दिन से प्रत्येक दिन इसके बीजों की 1-1 संख्या कम करते हुए 1 बीज तक, सोंठ के साथ खायें। ज्योतिष्मती (मालकांगनी) को खाने से पहले पेशाब की मात्रा बढ़ती है फिर धीरे-धीरे यह सूजन कम करती है। धीरे-धीरे संवेदनशीलता वापस आ जाती और शरीर की नसे स्वस्थ्य हो जाती हैं। ध्यान रहे : ज्योतिष्मती तेल या ज्योतिष्मती बीज में से किसी एक का ही प्रयोग करें।



*बंद माहवारी:
 मालकांगनी के बीज 3 ग्राम की मात्रा में लेकर गर्म दूध के साथ सेवन करने से अधिक दिनों का रुका हुआ मासिक-धर्म भी जारी हो जाता है।
* वीर्य रोग :
 40 ग्राम मालकांगनी का तेल, 80 ग्राम घी तथा 120 ग्राम शहद को मिलाकर कांच के बर्तन में रख दें। सुबह-शाम 6 ग्राम दवा खाने से नपुंसकता और टी.बी. के रोग में लाभ मिलता है।
मासिक-धर्म अवरोध:
मालकांगनी के पत्ते तथा विजयसार की लकड़ी दोनों को दूध में पीस-छानकर पीने से बंद हुआ मासिक-धर्म दुबारा शुरू हो जाता है।
मालकांगनी के पत्तों को पीसकर तथा घी में भूनकर महिलाओं को खिलाना चाहिए। इससे महिलाओं का बंद हुआ मासिक-धर्म दुबारा शुरू हो जाता है।
मालकांगनी के पत्ते, विजयसार, सज्जीक्षार, बच को ठंडे दूध में पीसकर स्त्री को पिलाने से मासिकस्राव (रजोदर्शन) आने लगता है।
  • पायरिया के घरेलू इलाज
  • चेहरे के तिल और मस्से इलाज
  • लाल मिर्च के औषधीय गुण
  • लाल प्याज से थायराईड का इलाज
  • जमालगोटा के औषधीय प्रयोग
  • एसिडिटी के घरेलू उपचार
  • नींबू व जीरा से वजन घटाएँ
  • सांस फूलने के उपचार
  • कत्था के चिकित्सा लाभ
  • गांठ गलाने के उपचार
  • चौलाई ,चंदलोई,खाटीभाजी सब्जी के स्वास्थ्य लाभ
  • मसूड़ों के सूजन के घरेलू उपचार
  • अनार खाने के स्वास्थ्य लाभ
  • इसबगोल के औषधीय उपयोग
  • अश्वगंधा के फायदे
  • लकवा की चमत्कारी आयुर्वेदिक औषधि वृहत वात चिंतामणि रस
  • मर्द को लंबी रेस का घोडा बनाने के अद्भुत नुस्खे
  • सदाबहार पौधे के चिकित्सा लाभ
  • कान बहने की समस्या के उपचार
  • पेट की सूजन गेस्ट्राईटिस के घरेलू उपचार
  • पैर के तलवों में जलन को दूर करने के घरेलू आयुर्वेदिक उपचार
  • लकवा (पक्षाघात) के आयुर्वेदिक घरेलू नुस्खे
  • डेंगूबुखार के आयुर्वेदिक नुस्खे
  • काला नमक और सेंधा नमक मे अंतर और फायदे
  • हर्निया, आंत उतरना ,आंत्रवृद्धि के आयुर्वेदिक उपचार
  • पाइल्स (बवासीर) के घरेलू आयुर्वेदिक नुस्खे
  • चिकनगुनिया के घरेलू उपचार
  • चिरायता के चिकित्सा -लाभ
  • ज्यादा पसीना होने के के घरेलू आयुर्वेदिक उपचार
  • पायरिया रोग के आयुर्वेदिक उपचार
  • व्हीटग्रास (गेहूं के जवारे) के रस और पाउडर के फायदे
  • घुटनों के दर्द को दूर करने के रामबाण उपाय
  • चेहरे के तिल और मस्से हटाने के उपचार
  • अस्थमा के कारण, लक्षण, उपचार और घरेलू नुस्खे
  • वृक्क अकर्मण्यता(kidney Failure) की रामबाण हर्बल औषधि
  • शहद के इतने सारे फायदे नहीं जानते होंगे आप!
  • वजन कम करने के उपचार
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  • हरड़ के गुण व फायदे
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  • पेट की खराबी के घरेलू उपचार
  • शिवलिंगी बीज के चिकित्सा उपयोग






  • 19.2.17

    जामुन के औषधीय गुण , फायदे ,प्रयोग



        


       जामुन (वैज्ञानिक नाम : Syzygium cumini) एक सदाबहार वृक्ष है जिसके फल बैंगनी रंग के होते हैं (लगभग एक से दो सेमी. व्यास के) | यह वृक्ष भारत एवं दक्षिण एशिया के अन्य देशों एवं इण्डोनेशिया आदि में पाया जाता है।
       इसे विभिन्न घरेलू नामों जैसे जामुन, राजमन, काला जामुन, जमाली, ब्लैकबेरी आदि के नाम से जाना जाता है। प्रकृति में यह अम्लीय और कसैला होता है और स्वाद में मीठा होता है। अम्लीय प्रकृति के कारण सामान्यत: इसे नमक के साथ खाया जता है।
       जामुन का फल 70 प्रतिशत खाने योग्य होता है। इसमें ग्लूकोज और फ्रक्टोज दो मुख्य स्रोत होते हैं। फल में खनिजों की संख्या अधिक होती है। अन्य फलों की तुलना में यह कम कैलोरी प्रदान करता है। एक मध्यम आकार का जामुन 3-4 कैलोरी देता है। इस फल के बीज में काबरेहाइड्रेट, प्रोटीन और कैल्शियम की अधिकता होती है। यह लोह का बड़ा स्रोत है। प्रति 100 ग्राम में एक से दो मिग्रा आयरन होता है। इसमें विटामिन बी, कैरोटिन, मैग्नीशियम और फाइबर होते हैं।काले काले स्वादिष्ट और मीठे जामुन खाने का आनंद शायद सभी ने लिया है। इसका एक अलग हल्का तोरा स्वाद ( astringent flavour ) सभी को पसंद आता है। इसको खाने के बाद जीभ के रंग बैंगनी हो जाता है। जून के महीने में और बारिश का मौसम शुरू होने पर ये खूब मिलते है। जामुन पूरे भारत में बड़े चाव से खाया जाता है। और अब तो विदेशी भी इसके कायल हो गए है। जामुन के जूस का चलन विश्व भर में बढ़ता जा रहा है। ये लीवर के रोगों में बहुत फायदेमंद होता है। अपने स्वाद और औषधीय गुणों के कारण जामुन का एक अलग ही महत्त्व है।
    *सेंधा नमक के साथ इसका सेवन भूख बढ़ाता है और पाचन क्रिया को तेज करता है बरसात के दिनों में हमारी पाचन संस्था कमजोर पड़ जाती है कारण हमारा मानना है कि बरसात यानि बस तली चीजें खाना कचौडी,पकोडे,समोसे इत्यादि जिसके कारण शूगर वालों का शूगर और बढ़ जाता है तथा पाचन क्रिया सुस्त हो जाती है।
    * आयुर्वेद के अनुसार जामुन की गुठली का चूर्ण मधुमेह में हितकर माना गया है, एक बार में 200 ग्राम से अधिक मात्रा में इस फल का सेवन नहीं करना चाहिए। खाली पेट जामुन खाने से पेट में दर्द और गैस बनने की शिकायतें संभव हैं जामुन ही नहीं जामुन के पत्ते खाने से भी मधुमेह रोगियों को लाभ मिलता है। यहां तक की इसकी गुठली का चूर्ण बनाकर खाने से भी मधुमेह में लाभ होता है।
    *यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी मजबूत बनाता है। पाचन शक्ति मजबूत करता है। इसलिए अगर आप इस मौसम में मौसम की मार से बचना चाहते हैं तो रोज जामुन खाएं। जामुन के मौसम में जामुन अवश्य खायें कारण साल के बाकी के दिनों में आसानी से उपलब्ध नहीं होता,यदि होता भी है तो जो बात मौसमी फलों में होती है वह बेमौसम में नहीं होती सो जहां तक हो सके हर मौसम के फलों का लुत्फ(मज़ा)उसके मौसम में ही उठाएं तो ज्यादा अच्छा रहता है। 
    *जामुन सामान्यतया अप्रैल से जुलाई माह तक सर्वत्र उपलब्ध रहते हैं। इसका न केवल फल, इसके वृक्ष की छाल, पत्ते और जामुन की गुठली अपने औषधीय गुणों के कारण विशेष महत्व रखते हैं। यह शीतल, एंटीबायोटिक, रुचिकर, पाचक, पित्त-कफ तथा रक्त विकारनाशक भी है। इसमें आयरन (लौह तत्व), विटामिन ए और सी प्रचुर मात्रा में होने से यह हृदय रोग, लीवर, अल्सर, मधुमेह,वीर्य दोष, खाँसी, कफ (दमा), रक्त विकार, वमन, पीलिया, कब्ज, उदररोग, पित्त, वायु विकार,अतिसार, दाँत और मसूढ़ों के रोगों में विशेष लाभकारी है। 
    *जामुन खाने के तत्काल बाद दूध नहीं पीना चाहिए। पका जामुन खाने से पथरी रोग में आराम मिलता है। पेट भरकर नित्य जामुन खाये तो इससे यकृत के रोगों में लाभ होगा। मौसम जाने के बाद इसकी गुठली को सुखाकर पीसकर रखलें इसका पावडर इस्तेमाल करें वही फल वाला फायदा देगा. 
    *जामुन के औषधीय उपयोग
     पथरी जामुन का पका हुआ फल पथरी के रोगियों के लिए एक अच्छी रोग निवारक दवा है। यदि पथरी बन भी गई तो इसकी गुठली के चूर्ण का प्रयोग दही के साथ करने से लाभ मिलता है। यदि पथरी बन भी गई तो इसकी गुठली के चूर्ण का प्रयोग दही के साथ करने से लाभ मिलता है। 
    लीवर 
    जामुन का लगातार सेवन करने से यकृत (लीवर) की क्रिया में काफी सुधार होता कब्ज और उदर रोग में जामुन का सिरका उपयोग करें मुँह में छाले होने पर जामुन का रस लगाएँ वमन होने पर जामुन का रस सेवन करें भूख न लगती हो तो कुछ दिनों तक भूखे पेट जामुन का सेवन करें 
    मुँहासे -
    जामुन की गुठलियों को सुखाकर पीस लें। इस पावडर में थोड़ा-सा गाय का दूध मिलाकर मुँहासों पर रात को लगा लें, सुबह ठंडे पानी से मुँह धो लें। कुछ ही दिनों में मुँहासे मिट जाएँगे 
    मधुमेह 
    * मधुमेह के रोगियों के लिए भी जामुन अत्यधिक गुणकारी फल है मधुमेह के रोगियों को नित्य जामुन खाना चाहियें जामुन की गुठलियों को सुखाकर पीस लें। इस पावडर को फाँकने से मधुमेह में लाभ होता है 
    दस्त लगने पर 
    जामुन के रस में सेंधा नमक मिलाकर इसका शर्बत बना कर पीना चाहियें। इसमें दस्त बाँधने की विशेष शक्ति है खूनी दस्त बन्द हो जाते हैं।२० ग्राम जामुन की गुठली पानी में पीसकर आधा कप पानी में घोलकर सुबह-शाम दो बार पिलाने से खूनी दस्त बन्द हो जाते हैं
     मंदाग्नि(एसिडिटी) 
    से बचने के लिए जामुन को काला नमक तथा भूने हुए जीरे के चूर्ण को लगाकर खाना चाहिए। जामुन के वृक्ष की छाल को घिसकर कम से कम दिन में तीन बार पानी के साथ मिलाकर पीने से अपच दूर हो जाता है जामुन के वृक्ष की छाल को घिसकर एवं पानी के साथ मिश्रित कर प्रतिदिन सेवन करने से रक्त साफ होताहै। जामुन के वृक्ष की छाल को पीसकर एवं बकरी के दूध के साथ मिलाकर देने से डायरिया(दस्त का भयंकर रूप) के रोगी को तुरंत आराम मिलता है। 
    पेचिश में
    जामुन की गुठली के चूर्ण को एक चम्मच की मात्रा में दिन में दो से तीन बार लेने से काफी लाभ होता है अच्छी आवाज बरकरार रखने के लिए जामुन की गुठली के काढ़े से कुल्ला करना चाहिए जामुन की गुठली का चूर्ण आधा-आधा चम्मच दो बार पानी के साथ लगातार कुछ दिनों तक देने से बच्चों द्वारा बिस्तर गीला करने की आदत छूट जाती है*अध्ययन दर्शाते हैं कि जामुन में एंटीकैंसर गुण होता है।
    *कीमोथेरेपी और रेडिएशन में जामुन लाभकारी होता है।
    *हृदय रोगों, डायबिटीज, उम्र बढ़ना और अर्थराइटिस में जामुन का उपयोग फायदेमंद होता है।
    *जामुन का फल में खून को साफ करने वाले कई गुण होते हैं।

    जामुन कब नहीं खाना चाहिए
    * उल्टी होती हो या जी घबराता हो तो जामुन नहीं खाने चाहिए।
    * शरीर में कहीं सूजन आई हुई है तो जामुन ना खाएँ।
    * ऑपरेशन से पहले और बाद में कुछ समय जामुन नहीं खाने चाहिए।
    * जामुन अधिक मात्रा में नहीं खाने चाहिए।
    * जामुन में वातज गुण होते है अतः इसे खाली पेट नहीं खाना चाहिए।
    * गर्भावस्था के दौरान जामुन ना खाये।
    * व्रत के समय और उपवास के समय जामुन का उपयोग नहीं करना चाहिए।

    18.2.17

    अर्जुन की छाल के औषधीय गुण




    परिचय :

     इसका वृक्ष 60 से 80 फीट तक ऊंचा होता है। इसके पत्ते अमरूद के पत्तों जैसे होते हैं। यह विशेषकर हिमालय की तराई, बंगाल, बिहार और मध्यप्रदेश के जंगलों में और नदी-नालों के किनारे पंक्तिबद्ध लगा हुआ पाया जाता है। ग्रीष्म ऋतु में फल पकते हैं।

    विभिन्न भाषाओं में नाम :

    संस्कृत- ककुभ। हिन्दी- अर्जुन, कोह। मराठी- अर्जुन सादड़ा। गुजराती- सादड़ो । तेलुगू- तेल्लमद्दि। कन्नड़- मद्दि। तमिल मरुतै, बेल्म। इंग्लिश- अर्जुना। लैटिन- टरमिनेलिया अर्जुन।
    अर्जुन वृक्ष भारत में होने वाला एक औषधीय और सदाबहार वृक्ष है भारतीय पहाड़ी क्षेत्रों में नदी-नाले के किनारे, सड़क के किनारे ओर जंगलों में यह महा औषधिये वर्क्ष बहुतायत में पाया जाता है। इसका उपयोग रक्तपित्त (खून की उल्टी), प्रमेह, मूत्राघात, शुक्रमेह, खूनी प्रदर, श्वेतप्रदर, पेट दर्द, कान का दर्द, मुंह की झांइयां,कोढ बुखार, क्षय और खांसी में भी लाभप्रद रहता है। हृदय रोग के लिए तो इसे रामबाण औषधि माना जाता है। यह नाडी की क्षीणता को सक्रिय करता है, पुराणी खांसी, श्वास दमा, मधुमेह, सूजन,जलने पर, मुंह के छाले पर और हिस्टीरिया आदि रोगों में लाभदायक है। हृदय की रक्तवाही नलिकाओं में थक्का बनने से रोकता है। यह शक्तिवर्धक, चोट से निकलते खून को रोकने वाला (रक्त स्तम्भक) एवं प्रमेह नाशक भी है। इसे मोटापे को रोकने, हड्डियों को जोड़ने में, खूनी पेचिश में, बवासीर में, खून की कलाटिंग रोकने में मदद करता है और केलोस्ट्राल को भी घटाता है। यह ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करता है, पत्थरी को निकलता है, लीवर को मजबूत करता है, बवासीर को ठीक करता है। ताकत को बढ़ाने के लिए और यह एंटीसेप्टिक का भी काम करता है।
         यह एक औषधीय वृक्ष है और आयुर्वेद में हृदय रोगों में प्रयुक्त औषधियों में प्रमुख है। अर्जुन का वृक्ष आयुर्वेद में प्राचीन समय से हृदय रोगों के उपचार के लिए प्रयोग किया जा रहा है। औषधि की तरह, पेड़ की छाल को चूर्ण, काढा, क्षीर पाक, अरिष्ट आदि की तरह लिया जाता है।



    आयुर्वेद ने तो सदियों पहले इसे हृदय रोग की महान औषधि घोषित कर दिया था। आयुर्वेद के प्राचीन विद्वानों में वाग्भट, चक्रदत्त और भावमिश्र ने इसे हृदय रोग की महौषधि स्वीकार किया है।




    हृदय रोग :

     हृदय रोग के रोगी के लिए अर्जुनारिष्ट का सेवन बहुत लाभप्रद सिद्ध हुआ है। दोनों वक्त भोजन के बाद 2-2 चम्मच (बड़ा चम्मच) यानी 20-20 मि.ली. मात्रा में अर्जुनारिष्ट आधा कप पानी में डालकर 2-3 माह तक निरंतर पीना चाहिए। इसके साथ ही इसकी छाल का महीन चूर्ण कपड़े से छानकर 3-3 ग्राम (आधा छोटा चम्मच) मात्रा में ताजे पानी के साथ सुबह-शाम सेवन करना चाहिए।

    रक्तपित्त :

     चरक के अनुसार, इसकी छाल रातभर पानी में भिगोकर रखें, सुबह इसे मसल-छानकर या काढ़ा बनाकर पीने से रक्तपित्त नामक व्याधि दूर हो जाती है।

    मूत्राघात : 

    पेशाब की रुकावट होने पर इसकी अंतरछाल को कूट-पीसकर 2 कप पानी में डालकर उबालें। जब आधा कप पानी शेष बचे, तब उतारकर छान लें और रोगी को पिला दें। इससे पेशाब की रुकावट दूर हो जाती है। लाभ होने.तक दिन में एक बार पिलाएं।
    खांसी : 



    अर्जुन की छाल को सुखा लें और कूट-पीसकर महीन चूर्ण कर लें। ताजे हरे अडूसे के पत्तों का रस निकालकर इस चूर्ण में डाल दें और चूर्ण सुखा लें, फिर से इसमें अडूसे के पत्तों का रस डालकर सुखा लें। ऐसा सात बार करके चूर्ण को खूब सुखाकर पैक बंद शीशी में भर लें। इस चूर्ण को 3 ग्राम (छोटा आधा चम्मच) मात्रा में शहद में मिलाकर चटाने से रोगी को खांसी में आराम हो जाता है।

    *हड्डी टूट जाने और चोट लगने पर भी अर्जुन की छाल शीघ्र लाभ करती है। अर्जुन की छाल के चूर्ण की फंकी दूध के साथ लेने से टूटी हुई हड्डी जुड़ जाती है। और अर्जुन की छाल को पानी के साथ पीसकर लेप करने से दर्द में भी आराम मिलता है। टूटी हड्डी के स्थान पर अर्जुन की छाल को घी में पीसकर लेप करेंके पट्टी बांध ले हड्डी शीघ्र जुड़ जाती है।
    *आग से जलने पर होने वाला घाव पर अर्जुन की छाल के चूर्ण को लगाने से घाव शीघ्र ही भर जाता है। अर्जुन छाल को कूट कर काढ़ा बनाकर घावों और जख्मों को धोने से लाभ होता है।
    बवासीर में अर्जुन की छाल, बकायन के फल और हारसिंगार के फूल तीनो को पीसकर बारीक चूर्ण बनाले इसे दिन में दो-तिन बार नियमित सेवन करने से खूनी बवासीर ठीक हो जाता है तथा बवासीर के मस्से ठीक हो जाते है।



    *अर्जुन और जामुन के सूखे पत्तों का चूर्ण शारीर पर उबटन की तरह लगाकर कुछ देर बाद नहाने से अधिक पसीने से पैदा दुर्गंध दूर होती है ।
    *नारियल के तेल में अर्जुन की छाल के चूर्ण को मिलाकर मुंह के छालों पर लगायें। मुंह के छाले ठीक हो जायेंगे।
    *एक चम्मच अर्जुन की छाल का चूर्ण एक कप (मलाई रहित) दूध के साथ सुबह-शाम नियमित सेवन करने से हृदय के सभी रोगों में लाभ मिलता है, दिल की धड़कन सामान्य होती है।

    *अर्जुन की छाल के चूर्ण को चाय के साथ एक चम्मच इस चूर्ण को उबालकर ले सकते हैं। उच्च रक्तचाप भी सामान्य हो जाता है। चायपत्ती की बजाये अर्जुन की छाल का चूर्ण डालकर ही चाय बनायें, यह और भी प्रभावी होगी। अर्जुन की छाल और गुड़ को दूध में उबाल कर रोगी को पिलाने से दिल मजबूत होता है और सूजन मिटता है।
    *एक गिलास टमाटर के रस में एक चम्मच अर्जुन की छाल का चूर्ण मिलाकर नियमित सेवन करने से दिल की धड़कन सामान्य हो जाती है।
    *अर्जुन की छाल और मिश्री मिला कर हलुवा बना ले, इसका नित्य सेवन करने से हृदय की पीड़ा, दिल की घबराहट, अनियमित धड़कन आदि से निजात मिलती हैं।
    *अर्जुन की छाल का दूध के साथ काढ़ा बना ले यह काढ़ा हार्ट अटैक हो चुकने पर सुबह शाम सेवन करें। इस से हृदय की तेज धड़कन, हृदय शूल, घबराहट में निश्चित तोर से कमी आती हैं।

    विशिष्ट परामर्श-


    पथरी के भयंकर दर्द को तुरंत समाप्त करने मे यह हर्बल औषधि सर्वाधिक कारगर साबित होती है,जो पथरी- पीड़ा बड़े अस्पतालों के महंगे इलाज से भी बमुश्किल काबू मे आती है इस औषधि की 2-3 खुराक से आराम लग जाता है| वैध्य श्री दामोदर 
    9826795656 की जड़ी बूटी - निर्मित दवा से 30 एम एम तक के आकार की बड़ी पथरी भी  नष्ट हो जाती है|
    गुर्दे की सूजन ,पेशाब मे जलन ,मूत्रकष्ट मे यह औषधि रामबाण की तरह असरदार है| आपरेशन की जरूरत ही नहीं पड़ती | पथरी न गले तो औषधि मनीबेक गारंटी युक्त है|

  • लाजवंती (छुई मुई ) के आयुर्वेदिक और औषधीय गुण



      


      छुई मुई पौधे के घरेलु नुस्खे

    छुई मुई का पौधा अपने आप में थोडा अजीब तरह का पौधा है साथ ही छुई मुई का दूसरा नाम लाजवंती भी है. इसके इन दोनों नामों के पीछे भी कारण है, जैसे ही हम इस पौधे को छूते हैं ये खुद को सिकोड़कर छोटे रूप में बदल जाता है. उस समय ऐसा प्रतीत होता है मानो ये हमसे शर्मा रहा होऔर यही कारण है कि इसका नाम लाजवंती पड़ा. छुई मुई का वानस्पतिक नाम माईमोसा पुदिका भी है जबकि देसी नाम लजोली भी है. इसके फूल गुलाबी रंग के होते हैं, जो देखने में बहुत आकर्षक और सुन्दर प्रतीत होते हैं.
       लाजवंती नमी वाले स्थानों में ज्यादा पायी जाती है इसके छोटे पौधे में अनेक शाखाएं होती है। इसका वानस्पतिक नाम माईमोसा पुदिका है। संपूर्ण भारत में होने वाला यह पौधा अनेक रोगों के निवारण के लिए उपयोग में लाया जाता है। इनके पत्ते को छूने पर ये सिकुड़ कर आपस में सट जाती है। इस कारण इसी लजौली नाम से जाना जाता है इसके फूल गुलाबी रंग के होते हैं । लाजवंती का पौधा एक विशेष पौधा है। इसके गुलाबी फूल बहुत सुन्दर लगते हैं और पत्ते तो छूते ही मुरझा जाते हैं। इसे छुईमुई भी कहते हैं।


    पेशाब की समस्यायें रखें दूर - 

    यदि किसी को अधिक पेशाब आने की समस्या है तो छुई मुई के पत्तों को सबसे पहले पानी में पिस लें और एक लेप तैयार करें. अब इस लेप को नाभि के निचले हिस्से लगाएं, इससे बार बार पेशाब आने की समस्या में शीघ्र आराम मिलता है.
    *लाजवंती के पत्तों को पानी में पीसकर नाभि के निचले हिस्से में लेप करने से पेशाब का अधिक आना बंद हो जाता है। पत्तियों के रस की 4 चम्मच मात्रा दिन में एक बार लेने से भी फायदा होता है।
    *लाजवंती की जड़ और पत्तों का पाउडर दूध में मिलाकर दो बार लेने से बवासीर और भगंदर रोग ठीक होता है। *पत्तियों के रस को बवासीर के घाव पर सीधे लगाने से घाव जल्दी सुख जाता है और अक्सर होने वाले खून के बहाव को रोकने में भी मदद करता है।
    *लाजवंती की जड़ों का चूर्ण (3 ग्राम) दही के साथ खूनी दस्त में जड़ों का पानी में तैयार काढ़ा भी खूनी दस्त रोकने में कारगर होता है।
    *लाजवंती के पत्तों का 1 चम्मच पाउडर मक्खन के साथ मिलाकर भगंदर और बवासीर होने पर घाव पर रोज सुबह-शाम या दिन में 3 बार लगाने से ठीक हो जाता है |
    *यदि लाजवंती की 100 ग्राम पत्तियों को 300 मिली पानी में डालकर काढ़ा बनाया जाए और इसे डायबिटीज रोगी को दिया जाए तो डायबिटीज में काफी फायदा होता है।

    *खुनी दस्त में आराम 

    यदि कोई खुनी दस्त से ग्रस्त है तो छुई मुई की जड़ों का चूर्ण बना लें, 3 ग्राम चूर्ण को दही के साथ खाने से खुनी दस्त जल्दी बंद हो जाता है.
    लाजवंती की जड़ों और बीजों का चूर्ण दूध के साथ लेने से पुरुषों में वीर्य की कमी की शिकायत में काफी हद तक फायदा होता है। इसकी जड़ों और बीजों का चूर्ण दूध के साथ लेने से पुरुषों में वीर्य की कमी की शिकायत में काफी हद तक फायदा होता है। इसकी जड़ों और बीजों के चूर्ण की 4 ग्राम मात्रा हर रात एक गिलास दूध के साथ एक माह तक लगातार ले।
    *अगर diabetes है तो इसका 5 ग्राम पंचांग का पावडर सवेरे लें .
    *पथरी किसी भी तरह की है तो , इसके 5 ग्राम पंचांग का काढ़ा पीएँ .

    *चर्म रोगों में राहत ( Cures Skin Diseases ) : 

    आधुनिक विज्ञान ने भी ये माना है कि त्वचा संक्रमण हो जाने पर छुई मुई के रस को दिन में 3 बार त्वचा पर लगाने से आराम मिलता है.

    *पेशाब रुक – रुक कर आता है

    या कहीं पर भी सूजन या गाँठ है तो इसके 5 ग्राम पंचांग का काढ़ा पीएँ
    लाजवंती और अश्वगंधा की जड़ों की समान मात्रा लेकर पीस लिया जाए और तैयार लेप को ढीले स्तनों पर हल्के-हल्के मालिश किया जाए तो धीरे-धीरे ढीलापन दूर होता है।
    लाजवंती के बीजों के चूर्ण (3 ग्राम) को दूध के साथ मिलाकर रोजाना रात को सोने से पहले लिया जाए तो शारीरिक दुर्बलता दूर हो जाती है।

    काली मिर्च के फायदे

    *स्तनों का ढीलापन दूर करे ( Removes Breasts Sagginess ) :

     यदि स्त्रियों के स्तनों के ढीलेपन की समस्या है तो छुई मुई की जड़ों और अश्वगंधा की जड़ों की समान मात्रा लेकर अच्छे से मिलाकर पीस लें और पानी के साथ लेप बना लें. रोजाना दिन में दो बार लेप को ढीले स्तनों पर हल्के - हल्के मालिश करें, स्तनों का ढीलापन दूर हो जायेगा.
    *हड्डियों के टूटने और मांस-पेशियों के आंतरिक घावों के उपचार में लाजवंती की जड़ें काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। घावों को जल्दी ठीक करने में इसकी जड़ें सक्रियता से कार्य करती हैं।

    गले के रोग ( Treat Goiter ) :

     जिन्हें गोईटर की समस्या हो उनको छुई मुई की पत्तियों को पीसकर रोजाना दिन में दो बार लगाएं समस्या से तुरंत आराम मिलेगा.*स्तन में गाँठ या कैंसर की सम्भावना हो तो ,
     लाजवंती की जड़ और अश्वगंधा की जड़ घिसकर लगाएँ .

    हड्डियों को मजबूती दे ( Strengthen Bones ) :

     छुई मुई हड्डियों के टूटने और मांसपेशियों के आंतरिक घावों को जल्द ही ठीक करता है.

    स्वप्न दोष के  अचूक उपचार 

    *अगर खांसी हो तो लाजवंती के जड़ के टुकड़ों के माला बना कर गले में पहन लो . हैरानी की बात है कि जड़ के टुकड़े त्वचा को छूते रहें ; बस इतने भर से गला ठीक हो जाता है . इसके अलावा इसकी जड़ घिसकर शहद में मिलाये . इसको चाटने से , या फिर वैसे ही इसकी जड़ चूसने से खांसी ठीक होती है . इसकी पत्तियां चबाने से भी गले में आराम आता है .

    *टोंसील ( Tonsil ) : 

    यदि किसी के टांसिल्स बढ़ गए हों तो छुई मुई की पत्तियों को पीसकर रोजाना दिन में दो बार लगाएं समस्या से तुरंत आराम मिलेगा.
    *लाजवंती का मुख्य गुण संकोचन का है . इसलिए अगर कहीं भी मांस का ढीलापन है तो , इसकी जड़ का गाढ़ा सा काढा बनाकर वैसलीन में मिला लें और मालिश करें . anus बाहर आता है तो toilet के बाद मालिश करें .
    uterus बाहर आता है तो, पत्तियां पीसकर रुई से उस स्थान को धोएँ .
    नपुंसकता दूर करे ( Removes Impotency )
    :
     नपुंसकता को दूर करने के लिए तीन से चार इलायची, छुई मुई की 2 ग्राम जड़, सेमल की 3 ग्राम छाल को आपस में अच्छे सेमिलकर कुचल लिया जाये और रोजाना एक गिलास दूध में मिलाकर रात को सोने से पहले पिया जाये तो आपको हो रही नपुंसकता को दूर किया जा सकता है.
    *hydrocele की समस्या हो या सूजन हो तो पत्तोयों को उबालकर सेक करें या पत्तियां पीसकर लेप करें .
    हृदय या kidney बढ़ गए हैं, उन्हें shrink करना है , तो इस पौधे को पूरा सुखाकर , इसके पाँचों अंगों ((फूल, पत्ते, छाल, बीज और जड़) ) का 5 ग्राम 400 ग्राम पानी में उबालें . जब रह जाए एक चोथाई, तो सवेरे खाली पेट पी लें .
    *यदि bleeding हो रही है piles की या periods की या फिर दस्तों की , तो इसकी 3-4 ग्राम जड़ पीसकर उसे दही में मिलाकर प्रात:काल ले लें ,या इसके पांच ग्राम पंचांग का काढ़ा पीएँ.

    किडनी रोगों से निवारण ( Removes Kidney Problems ) : 

    किडनी में किसी तरह की समस्या होने पर आपको सबसे पहले इसका पूरा पौधा सुखाना है फिर इसके पाँचों अंगों को जोकि फूल, पत्ते, छाल, बीज और जड़ को 5 ग्राम की मात्रा में लेकर 400 ग्राम पानी मेंतब तक उबालें जब तक पानी ¼ ना रह जाये, अब इसे रोज सवेरे खली पेट पी लें, आपको निश्चित लाभ मिलेगा.
    *Goitre की या tonsil की परेशानी हो तो , इसकी पत्तियों को पीसकर गले पर लेप करें .
    *Uterus में कोई विकार है तो , इसके एक ग्राम बीज सवेरे खाली पेट लें
     .
        



    तुरई(नेनुया) के औषधीय गुण,फायदे ,उपयोग




         तुरई या तोरी एक सब्जी है जिसे लगभग संपूर्ण भारत में उगाया जाता है। तुरई का वानस्पतिक नाम लुफ़्फ़ा एक्युटेंगुला है। तुरई को आदिवासी विभिन्न रोगों के उपचार के लिए उपयोग में लाते हैं। मध्यभारत के आदिवासी इसे सब्जी के तौर पर बड़े चाव से खाते हैं और हर्बल जानकार इसे कई नुस्खों में इस्तमाल भी करते हैं। चलिए आज जानते हैं ऐसे ही कुछ रोचक हर्बल नुस्खों के बारे में।
    *आधा किलो तुरई को बारीक काटकर 2 लीटर पानी में उबाल लिया जाए और छान लिया जाए। प्राप्त पानी में बैंगन को पका लें। बैंगन पक जाने के बाद इसे घी में भूनकर गुड़ के साथ खाने से बवासीर में बने दर्द तथा पीड़ा युक्त मस्से झड़ जाते हैं।

    *लिवर के लिए गुणकारी

    आदिवासी जानकारी के अनुसार लगातार तुरई का सेवन करना सेहत के लिए बेहद हितकर होता है। तुरई रक्त शुद्धिकरण के लिए बहुत उपयोगी माना जाता है। साथ ही यह लिवर के लिए भी गुणकारी होता है।

    दाद, खाज और खुजली से राहत

    *तुरई के पत्तों और बीजों को पानी में पीसकर त्वचा पर लगाने से दाद, खाज और खुजली जैसे रोगों में आराम मिलता है। वैसे ये कुष्ठ रोगों में भी हितकारी होता है।



    * पेट दर्द दूर होता है


    अपचन और पेट की समस्याओं के लिए तुरई की सब्जी बेहद कारगर इलाज है। डांगी आदिवासियों के अनुसार अधपकी सब्जी पेट दर्द दूर कर देती है।
    *तोरई पेशाब की जलन और पेशाब की बिमारी दूर करने में लाभकारी है |

    * डायबिटीज़ में फायदा

    तुरई में इंसुलिन की तरह पेप्टाइड्स पाए जाते हैं। इसलिए सब्ज़ी के तौर पर इसके इस्तेमाल से डायबिटीज़ में फायदा होता है।

    पथरी में आराम

    तुरई की बेल को दूध या पानी में घिसकर 5 दिनों तक सुबह शाम पिया जाए, तो पथरी में आराम मिलता है। 

    पीलिया समाप्त हो जाता है

    पीलिया होने पर तोरई के फल का रस यदि रोगी की नाक में दो से तीन बूंद डाला जाए तो नाक से पीले रंग का द्रव बाहर निकलता है और आदिवासी मानते है कि इससे अतिशीघ्र पीलिया रोग समाप्त हो जाता है।



    *तुरई के पत्तों और बीजों को पानी में पीसकर त्वचा पर लगाने से दाद-खाज और खुजली जैसे रोगों में आराम मिलता है, वैसे ये कुष्ठ रोगों में भी हितकारी होता है।

    *तोरई के सेवन से घुटनों के दर्द में आराम मिलता है |

    *बाल काले करने के लिए

    पातालकोट के आदिवासियों के अनुसार तुरई के छोटे-छोटे टुकड़े काटकर छांव में सूखा लें। फिर इन सूखे टुकड़ों को नारियल के तेल में मिलाकर 5 दिन तक रख लें। बाद में इसे गर्म कर लें। इस तेल को छानकर प्रतिदिन बालों पर लगाएं और मालिश करें, इससे बाल काले हो जाते हैं।
    *तुरई की बेल को दूध या पानी में घिसकर 5 दिनों तक सुबह शाम पिया जाए तो पथरी में आराम मिलता है।
    *तोरई के पत्तों को पीस लें | यह लेप कुष्ठ पर लगाने से लाभ मिलता है |

    * मस्से झड़ते हैं


    आधा किलो तुरई को बारीक काटकर 2 लीटर पानी में उबालकर, इसे छान लें। फिर प्राप्त पानी में बैंगन को पका लें। बैंगन पक जाने के बाद इसे घी में भूनकर गुड़ के साथ खाने से बवासीर में बने दर्द और पीड़ा युक्त मस्से झड़ जाते हैं।
    विशिष्ट परामर्श-


    पथरी के भयंकर दर्द को तुरंत समाप्त करने मे यह हर्बल औषधि सर्वाधिक कारगर साबित होती है,जो पथरी- पीड़ा बड़े अस्पतालों के महंगे इलाज से भी बमुश्किल काबू मे आती है इस औषधि की 2-3 खुराक से आराम लग जाता है| वैध्य श्री दामोदर 
    9826795656 की जड़ी बूटी - निर्मित दवा से 30 एम एम तक के आकार की बड़ी पथरी भी  नष्ट हो जाती है|
    गुर्दे की सूजन ,पेशाब मे जलन ,मूत्रकष्ट मे यह औषधि रामबाण की तरह असरदार है| आपरेशन की जरूरत ही नहीं पड़ती | पथरी न गले तो औषधि मनीबेक गारंटी युक्त है|




    16.2.17

    सम्मोहन और स्तंभन की दिव्य औषधि कस्तूरी के अनुपम प्रयोग




    कस्तूरी  मृग : 
       हिमालय में ऐसे कई जीव-जंतु हैं, जो बहुत ही दुर्लभ है। उनमें से एक दुनिया का सबसे दुर्लभ मृग है कस्तूरी मृग। यह हिरण उत्तर पाकिस्तान, उत्तर भारत, चीन, तिब्बत, साइबेरिया, मंगोलिया में ही पाया जाता है। इस मृग की कस्तूरी बहुत ही सुगंधित और औषधीय गुणों से युक्त होती है। कस्तूरी मृग की कस्तूरी दुनिया में सबसे महंगे पशु उत्पादों में से एक है। यह कस्तूरी उसके शरीर के पिछले हिस्से की ग्रंथि में एक पदार्थ के रूप में होती है।  
    कस्तूरी चॉकलेटी रंग की होती है, जो एक थैली के अंदर द्रव रूप में पाई जाती है। इसे निकालकर व सुखाकर इस्तेमाल किया जाता है। कस्तूरी मृग से मिलने वाली कस्तूरी की अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमत अनुमानित 30.लाख रुपए प्रति किलो है जिसके कारण इसका शिकार किया जाता रहा है। आयुर्वेद में कस्तूरी से टीबी, मिर्गी, हृदय संबंधी बीमारियां, आर्थराइटिस जैसी कई बीमारियों का इलाज किया जा सकता है। इसका इस्तेमाल इत्र बनाने में भी किया जाता है। माना जाता है कि यह कस्तूरी कई चमत्कारिक धार्मिक और सांसारिक लाभ देने वाली औषधि है।  

    कस्तूरी तीन प्रकार की होती है :
    1. कामरूप में उत्पन्न कस्तूरी काले रंग की होती है और उत्तम भी होती है।
    2. नेपाल में पैदा होने वाली कस्तूरी के रंग के बार में कस्तूरी रंग में भूरी होती है। इसका रंग नीला होता है।
    3. कश्मीर में पैदा होने वाली कस्तूरी कपिल रंग की होती है और यह कस्तूरी सामान्य गुणों वाला होती है।
    असली कस्तूरी की पहचान करना :
    छोटे, अधिक आयु वाले व कमजोर हिरन की नाभि की कस्तूरी धीमी गंध वाली होती है और कामातुर और व्यस्क हिरन की नाभी की कस्तूरी साफ रंग वाली व बहुत ही कम खुशबू वाली होती है।
    यदि कस्तूरी छूने पर चिकनी महसूस हो, जलाने से धुएं की तरह गंध आए, कपडे़ पर इसका पीला दाग लगे, आग में जल्दी जल जाएं, मलने पर रूखा महसूस हो तो यह बनावटी और नकली कस्तूरी होता है।


    यदि कस्तूरी से केवड़े के फूल की तरह हल्की और सुगंध आती हो। इसका रंग सावला, नीला और भूरा हो। इसका स्वाद कडुवा हो, मलने पर चिकनाहट महसूस हो, आग में जलाने से काफी देर तक जलता हो तो इस तरह की कस्तूरी हिरन की नाभि से उत्पन्न हुई कस्तूरी होती है।

    यदि कस्तूरी को अदरक के रस में मलाकर सिर पर लगा दिया जाए तो तुरन्त ही नाक से खून टपकने लगता है और असली मलयागिर चन्दन सिर पर लगा दिया जाए तो खून का बहना बंद हो जाता है। यह असली कस्तूरी और चन्दन की पहचान है।

    विभिन्न भाषाओं में नाम :
    संस्कृत
    मृगनाभि, मृगमद।
    हिन्दी
    कस्तूरी।
    अंग्रेजी
    मुश्क।
    लैटिन
    मोसकस।
    मराठी
    कस्तूरी।
    बंगाली
    मृगनाभि।
    फारसी
    मुष्क।
    अरबी
    मिस्क।
    रंग : कस्तूरी हल्की लाल, काली, नीली एवं भूरी होती है।
    स्वाद : यह कडुवी होती है।
    स्वरूप : कस्तूरी काले हिरन की नाभि से प्राप्त की जाती है। यह बहुत सुगंधित होती है और इसकी सुगंध काफी दूर तक फैलती है। यह हृदय के लिए बहुत लाभकारी होता है।

    प्रकृति : यह गर्म होती है।
    हानिकारक : कस्तूरी पित्त प्रकृति वालों के लिए हानिकारक है और इससे सिर दर्द पैदा होता है।
    दोषों को दूर करने वाला : वंशलोचन और गुलाब का रस कस्तूरी में व्याप्त दोषों को दूर करता है।
    तुलना : वंशलोचन, मक्खी की पंख, घोड़ी की लीद से कस्तूरी की तुलना की जा सकती है।
    मात्रा : आधा ग्राम से 1 ग्राम तक।
    गुण : कस्तूरी मन को शांत व प्रसन्न करती है। आंखों के लिए फायदेमंद होती है। यह बदबू को दूर करती है। यह दिल के लिए अच्छी होती है और दिमाग को तेज करती है। शरीर में गर्मी पैदा करती हैं, स्मरण शक्ति को बढ़ाती है, धातु को पुष्ट करती है, प्रमेह को खत्म करती है एवं लकवे को समाप्त करती है   अष्टगन्ध में कस्तूरी सर्वाधिक मूल्यवान और महत्त्वपूर्ण पदार्थ है।आयुर्वेद,कर्मकांड, और तन्त्र में इसका विशेष प्रयोग होता है,किन्तु सुलभ प्राप्य नहीं होने के कारण नकल का व्यापार भी व्यापक है। उपलब्धि-स्रोत के विचार से कस्तूरी तीन प्रकार का होता है-
    1. मृगा कस्तूरी-
    जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है- मृग के शरीर से प्राप्त होने वाला यह एक जांगम द्रव्य है।ध्यातव्य है कि यह सभी मृगों में नहीं पाया जाता,प्रत्युत एक विशेष जाति के मृगों में ही पाया जाता है।उन विशिष्ट मृगों में भी सभी में हो ही- यह आवश्यक नहीं।इस प्रकार, विशिष्ट में भी विशिष्ट की श्रेणी में है।मृग की नाभि में एक विशेष प्रकार का अन्तःस्राव क्रमशः एकत्र होने लगता है,जिसका सुगन्ध धीरे-धीरे बाहर भी प्रस्फुटित होने लगता है।यहां तक कि उस सुगन्ध की अनुभूति उस अभागे मृग को होती तो है,किन्तु उसे यह ज्ञात नहीं होता कि सुगन्ध का स्रोत क्या है।उसे वह कोई बाहरी सुगन्ध समझ कर,उसकी खोज में इधर-उधर अति व्यग्र होकर भटकता है,और, यहां तक कि व्यग्रता में दौड़ लगाते-लगाते मूर्छित होकर गिर पड़ता है।प्रायः उस अवस्था में उसकी मृत्यु भी हो जाती है। "कस्तूरी कुण्डली बसे, मृग ढूढे वन माहीं..." की उक्ति इस बात का उदाहरण है।मृत मृग की नाभि को काट कर उससे वह गांठ प्राप्त कर लिया जाता है।ऊपर के चर्म-कवच को काट कर भीतर भरे कस्तूरी(महीन रवादार पदार्थ)को निकाल लिया जाता है।धन-लोलुप शिकारी(वनजारे) सुगन्ध के आभास से मृगों का टोह लेते रहते हैं,और उन्हें मार कर नाभि निकाल लेते हैं।वैसे भी नाभि-ग्रन्थि के काट लेने पर किसी प्राणी का बचना असम्भव है।आजकल इन मृगों की प्रजाति लगभग नष्ट की स्थिति में है।भेड़-बकरे की नाभि को काटकर,उसमें कृत्रिम सुगन्धित पदार्थ भर कर धड़ल्ले से नकली कस्तूरी का व्यापार होता है।अनजाने लोग ठगी के शिकार होते हैं,और द्रव्य-शुद्धि के अभाव में साधित क्रिया फलदायी नहीं होने पर साधक के साथ-साथ तन्त्रशास्त्र की भी बदनामी होती है।

    2. विडाल कस्तूरी-
    नाम से ही स्पष्ट है- विडाल(बिल्ली) के शरीर से प्राप्त होने वाला एक जांगम द्रव्य।वस्तुतः नरविलाव के अण्डकोश में एकत्र एक विशेष प्रकार का अन्तःस्राव(शुक्रकीटों के पोषणार्थ निर्मित)घनीभूत होकर एक सुगन्धित पदार्थ का सृजन करता है,जो काफी हद तक मृगाकस्तूरी से गुण-धर्म-साम्य रखता है।यह प्रायः प्रत्येक नरविडाल के अण्डकोश से प्राप्त किया जा सकता है।इस प्रकार प्राप्ति का सबसे सुलभ और सस्ता स्रोत है।अरबी विद्वानों ने इसे ज़ुन्दवदस्तर नाम दिया है।हकीमी दवाइयों में इसका काफी उपयोग होता है।तन्त्र शास्त्र में जहां कहीं भी कस्तूरी की चर्चा है, मुख्य रूप से मृगाकस्तूरी ही प्रयुक्त होता है।पवित्र जांगम द्रव्यों में वही मर्यादित है सिर्फ,न कि विडाल कस्तूरी।वैसे तामसिक तन्त्र साधक इसका प्रयोग धड़ल्ले से करते हैं,और लाभ भी होता है,किन्तु सात्विक साधकों के लिए यह सर्वदा वर्जित है।
    3. लता कस्तूरी-
     यह एक वानस्पतिक द्रव्य है,जिसे किंचित गुण-धर्म के कारण कस्तूरी की संज्ञा दी गयी है।वैसे नाम है लता कस्तूरी,किन्तु इसका पौधा,फूल,पत्तियां सबकुछ भिण्डी(रामतुरई)के समान होता है,बल्कि उससे भी थोड़ा बड़ा ही।फल की बनावट भी भिण्डी जैसी ही होती होती है,परन्तु विलकुल ठिगना ही रह जाता है- लम्बाई में विकास न होकर,सिर्फ मोटाई में विकास होता है,और फल लगने के दो-चार दिनों में ही पुष्ट(कड़ा) हो जाता है।पुष्ट होने से पहले यदि तोड़ लिया जाय तो ठीक भिण्डी की तरह ही सब्जी बनायी जा सकती है।वैसे सब्जी की तुलना में इसका भुजिया अधिक अच्छा होता है।प्रत्येक पौधे में फल की मात्रा भी भिण्डी की तुलना में काफी अधिक होता है। इसकी एक और विशेषता है कि यह बहुवर्षायु वनस्पति है।छोड़ देने पर काफी बड़ा(अमरुद, अनार जैसा) हो जाता है,और लागातार बारहों महीने फल देते रहता है।एक बात का ध्यान रखना पड़ता है कि हर वर्ष कार्तिक से फाल्गुन महीने के बीच सुविधानुसार यदि थोड़ी छंटाई कर दी जाय तो नये डंठल निकल कर पौधे का सम्यक् विकास होकर फल की गुणवत्ता में वृद्धि होती है।खेती की दृष्टि से यदि रोपण करना हो तो हर तीसरे वर्ष नये बीज डाल देने चाहिए।इसका फल बहुत ही पौष्टिक होता है।पौष्टिकता में जड़ों की भी अपनी विशेषता है।इसे सुखा कर चूर्ण बनाकर,एक-एक चम्मच प्रातः-सायं मधु के साथ सेवन करने से बल-वीर्य की वृद्धि होती है।पुष्ट-परिपक्व फलों से प्राप्त बीजों को चूर्ण कर कस्तूरी की तरह उपयोग किया जा सकता है,जो किंचित सुगन्ध युक्त होता है।गुण-धर्म में मृगाकस्तूरी जैसा तो नहीं,फिर भी काफी हद कर कारगर है।
    आयुर्वेद में स्थिति के अनुसार उक्त तीनों प्रकार के कस्तूरी का उपयोग किया जाता है।कर्मकाण्ड और तन्त्र में मुख्य घटक के साथ-साथ "योगवाही" रुप में भी प्रयुक्त होता है।कस्तूरी में सम्मोहन और स्तम्भन शक्ति अद्भुत रुप में विद्यमान है,चाहे वह शरीर के वीर्य(शुक्र) का स्तम्भन हो या कि बाहरी (शत्रु,शस्त्रादि) स्तम्भन।यह एक विकट रुप से उत्तेजक द्रव्य भी है।शरीर में ऊष्मा के संतुलन में भी इसका महद् योगदान है। कस्तूरी अष्टगन्ध का एक प्रमुख घटक है।इसके बिना अष्टगन्ध की कल्पना ही व्यर्थ है।साधित कस्तूरी के तिलक प्रयोग से संकल्पानुसार षट्कर्मों की सम्यक् सिद्धि होती है।अन्य आवश्यक द्रव्य मिश्रित कर दिये जायें,फिर कहना ही क्या।सौभाग्य से असली कस्तूरी प्राप्त हो जाय तो सोने या चांदी की डिबिया में रख कर पंचोपचार पूजन करने के बाद श्री शिवपंचाक्षर,और देवी नवार्ण मन्त्रों का एक-एक हजार जप (दशांश होमादि सहित) सम्पन्न करके डिबिया को सुरक्षित रख लें।इसे लम्बे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है।प्रयोग की मात्रा बहुत ही कम होती है- सूई के नोक पर जितना आ सके- एक बार के उपयोग के लिए काफी है।जैसा कि ऊपर भी कह आये हैं- सात्विक साधक सिर्फ मृगाकस्तूरी का ही प्रयोग करें।अभाव में आठ गुणा बल(साधना) देकर लता कस्तूरी का प्रयोग किया जा सकता है,किन्तु विडाल कस्तूरी(जुन्दवदस्तर) का प्रयोग कदापि न करें।