18.4.17

आर्सेनिक एल्ब -होम्योपैथिक औषधि की जानकारी

                                                         

लक्षण -
;* रात्रिकालीन या दोपहर के बाद रोग का बढ़ना (जैसे, दमा)
* सफाई-पसन्द-स्वभाव
;*मृत्यु के समय की बेचैनी में आर्सेनिक तथा कार्बोवेज शान्त मृत्यु लाते हैं या मृत्यु से बचा लेते हैं।
*जलन परन्तु गर्मी से आराम मिलना
* बेचैनी, घबराहट, मृत्यु-भय और बेहद कमजोरी
*बार-बार, थोड़ी-थोडी प्यास लगना
*वाह्य-त्वचा, अल्सर तथा गैंग्रीन पर आर्सेनिक का प्रभाव
* श्लैष्मिक झिल्ली पर आर्सेनिक का प्रभाव (आंख, नाक, मुख, गला, पेट, मूत्राशय से जलने वाला स्राव)
*समयानन्तर’ (Periodical) तथा पर्याय-क्रम (Al-ternate state) के रोग
लक्षणों में कमी
* गर्मी से रोग घटना
*मध्य रात्रि 1-2 बजे के बाद रोग का बढ़ना
* 14 दिन बाद, साल भर बाद रोग का आक्रमण
*बरसात का मौसम</
* गर्म पेय, गर्म भोजन चाहना
* दमे में सीधा बैठने से कमी
लक्षणों में वृद्धि-
*ठंड, बर्फ, ठंडा पेय, ठंडा भोजन नापसन्द होना
*बेचैनी, घबराहट, मृत्यु-भय और बेहद कमजोरी – 

बेचैनी इसका प्रधान लक्षण हैं। किसी स्थान पर भी उसे चैन नहीं मिलता, आराम नहीं मिलता। रोगी कभी यहां बैठता है, कभी वहां, कभी एक बिछौने पर लेटता है, कभी दूसरे बिछौने पर, कभी एक कुर्सी पर बैठता है, कभी दूसरी कुर्सी पर। एक जगह टिक कर बैठना, लेटना, रहना तक उसके लिये दुर्भर हो जाता है। इस प्रकार की बेचैनी किसी दूसरी दवा में नहीं पायी जाती है। रोग की शुरूआत में जो बेचैनी होती है, उसमें तो एकोनाइट काम कर जाता है, परन्तु रोग जब बढ़ जाता है, तब की बेचैनी के लिये आर्सेनिक औषधि अधिक उपयुक्त हैं। उस बेचैनी में रोगी घबरा जाता हैं, जीवनी-शक्ति में दिनोंदिन बढ़ता ह्रास देख कर उसे मृत्यु का भय सताने लगता है। उसे समझ नहीं आता कि क्या करे क्या न करे, दिनोंदिन निर्बलता बढ़ती जाती है, और रोगी इतना कमजोर हो जाता है कि पहले तो कभी उठ बैठता था, कभी लेट जाता था, कभी टहलकर शान्ति पाने का प्रयत्न करता था, परन्तु अब कमजोरी के कारण चल-फिर भी नहीं सकता। यह बेचैनी और घबराहट दूर हो जाने के कारण नहीं होती, कमजोर हो जाने के कारण होती है। चिकित्सक को रोगी के विषय में पूछना चाहिये कि उसकी इस अवस्था से पूर्व क्या उसकी बेचैनी की हालत थी? जब कमजोरी बेचैनी का परिणाम हो तब पूर्व-बेचैनी और वर्तमान कमजोरी-इन लक्षणों के आधार पर आर्सेनिक ही देना होगा। बच्चों की बेचैनी समझने के लिये देखना होगा कि वह कैसा व्यवहार करता है। अगर कभी वह मां की गोद में जाता है. कभी नर्स की गोद में, कभी बिस्तर पर जाने का इशारा करता है, किसी हालत में उसे चैन नहीं पड़ता, तो आर्सेनिक ही उसे ठीक करेगा।

बेचैनी में एकोनाइट और आर्सेनिक की तुलना – 

एकोनाइट का रोगी बलिष्ठ होता है, तन्दरुस्त होता है। उस पर एकाएक ही रोग का आक्रमण होता है, लगता है कि मृत्यु के मुख में जा पड़ा, उसे भी मौत सामने नाचती दीखती है, परन्तु उसकी जीवनी-शक्ति प्रबल होती है, वह शीघ्र ही दवा के प्रयोग से रोग से छूट जाता है, और पहले जैसा हो जाता है। आर्सेनिक का रोगी मौत के मुख से छूट भी गया तो भी स्वास्थ्य लाभ पाने में उसे देर लगती है। रोग की प्रथमावस्था में एकोनाइट के लक्षण पाये जाते हैं, रोग की भयंकर अवस्था में आर्सेनिक के लक्षण पाये जाते हैं. जब रोग खतरनाक नहीं होता तब एकोनाइट, जब खतरनाक हो जाता है तब आर्सेनिक की तरफ ध्यान देना चाहिये, शर्त यह है कि बेचैनी, घबराहट, मृत्यु-भय आदि लक्षण जो दोनों के समान हैं, मौजूद हों। एकोनाइट रोगी में इतना बल रहता है कि बेचैनी में, घबराहट और भय से, इधर उठता, उधर बैठता, बिस्तर में पलटता है, परन्तु आर्सेनिक का रोगी शुरू में तो बची-खुची ताकत से इधर-उधर उठता-बैठता है, परन्तु अन्त में इतना शक्तिहीन हो जाता है कि निश्चेष्ट ही पड़ जाता है। सत्वहीनता (Prostration) इसका मुख्य लक्षण है। इन दोनों में भय भी हैं, और जलन भी, परन्तु एकोनाइट का भय सिर्फ नर्वस-टाइप का होता है, जलन भी नर्वस-टाइप की होती हैं, आर्सेनिक का भय तथा उसकी जलन वास्तविक होती हैं, बीमारी का परिणाम होती है, इसलिये नर्वस-भय और जलन के लिये एकोनाइट देना चाहिये, उसमें आर्सेनिक देना गलत है।

*मृत्यु-समय की बेचैनी में आर्सेनिक तथा कार्बोवेज शांत-मृत्यु लाते हैं या मृत्यु से बचा लेते हैं –

;मृत्यु सिर पर आ खड़ी होने पर सारा शरीर निश्चल हो जाता है, देखते-देखते शरीर पर ठंडा, चिपचिपाता पसीना आ जाता है। ऐसा समय हैजे या किसी भी अन्य रोग में आ सकता है। उस समय दो ही रास्ते रह जाते हैं-या तो रोगी की शान्ति से मृत्यु हो जाय, उसे तड़पना न पड़े, या वह मृत्यु के मुख से खींच लिया जाय। यह काम होम्योपैथी में दो ही दवाएं कर सकती हैं। एक है आर्सेनिक, दूसरी है कार्बोवेज। ऐसे समय दोनों में से उपयुक्त दवा की उच्च-शक्ति की एक मात्रा या तो रोगी को मृत्यु के मुख से खींच लेगी, या उसे शान्तिपूर्वक मरने देगी।

* बार-बार, थोड़ी-थोड़ी प्यास लगना – 

आर्सेनिक औषधि में प्यास इसका एक खास लक्षण है, परन्तु इस प्यास की एक विशेषता है। रोगी बार-बार पानी पीता है, परन्तु हर बार बहुत थोड़ा पानी पीता है। प्राय: देखा जाता है कि रोग में एक अवस्था आगे चलकर दूसरी विरोधी अवस्था में परिणत हो जाती है। उदाहरणार्थ, हमने देखा कि आर्सेनिक में शुरू-शुरू में बेचैनी होती है, परन्तु आगे चलकर कमजोरी के कारण रोगी शिथिल पड़ जाता है, एक स्थान को छोड़ दूसरे स्थान में जाने की भी ताकत उसमें नहीं रहती। इसी प्रकार शुरू में आर्स में प्यास पायी जाती है, थोड़ा-थोड़ा पानी पीना, कई बार पीना-परन्तु आगे चल कर इस औषधि का रोगी प्यासहीन हो जाता है। प्रारंभ में प्यास, और रोग के बढ़ जाने पर प्यासहीनता-यह आर्सेनिक का लक्षण है। रोग की जांच करते हुए पूछना चाहिये कि क्या शुरू में रोगी को बार-बार, थोड़े-थोड़े पानी की प्यास लगती थी। चिकित्सक को रोग की शुरूआत से अब तक की हालत जानने का प्रयत्न करना चाहिये। अगर रोगी को अब प्यास नहीं है, अब वह कमजोरी के कारण बेचैन भी नहीं है, तो भी देखना यह है कि क्या शुरूआत में उसे प्यास लगती थी, शुरू में वह बेचैन था? ऐसी हालत में आर्सेनिक उसकी दवा होगी। ब्रायोनिया में रोगी देर-देर बाद बहुत-सा पानी पीता है, एकोनाइट में बार-बार बहुत-सा पानी पीता है, आर्स में बार-बार, थोड़ा-थोड़ा पानी पीता है

*जलन परन्तु गर्मी से आराम मिलना – 

आर्सेनिक, फॉसफोरस, सल्फर और सिकेल कौर की तुलना – ये चार औषधियां जलन के लिये प्रधान औषधियां हैं। नवीन-रोग की जलन में आर्सेनिक और पुराने रोग की जलन में सल्फर लाभप्रद है। नये तथा पुराने सभी रोगों में जलन के लक्षण पर फॉसफोरस की तरफ भी ध्यान जाना चाहिये। सिकेल कौर और आर्सेनिक दोनों में जलन और कमजोरी पाये जाते हैं परन्तु इनमें अन्तर यह है कि सिकेल अन्दर जलन किन्तु बाहर बर्फ की तरह ठंडा होने पर भी अंग पर कपड़ा नहीं रख सकता और आर्सेनिक का रोगी अन्दर की जलन होने पर भी गर्म कपड़ा ही ओढ़ना चाहता हैं। आर्सेनिक का यह ‘विलक्षण-लक्षण’ है कि जलन होने पर भी गर्मी से उसे आराम मिलता है। फेफड़े में जलन हों तो रोगी सेक चाहेगा, पेट में जलन हो तो वह गर्म चाय, गर्म दूध पसन्द करेगा, जख्म से जलन हो तो गर्म पुलटिस लगवायेगा, बवासीर की जलन हो तो गर्म पानी में धोना चाहेगा। इसमें अपवाद मस्तिष्क की जलन हैं, उसमें वह ठंड़े पानी से सिर धोना चाहता है। आर्सेनिक का रोगी सारा शरीर कम्बल से लपेटे पड़ा होगा परन्तु सिर उसका खुला होगा ताकि ठंडी हवा उस पर लगती रहे।

मुख के छालों में जलन –

 जब मुख में छाले पड़ जायें, जले, गरम पानी से लाभ हो, तब वहां आर्सेनिक दो।
गले के टांसिल में शोथ तथा जलन – गले में जलन और शोथ के साथ गर्म पानी के सेक से आराम मिलने पर अन्य लक्षणों को ध्यान में रखते हुए यह दवा दी जाये।

*वाह्य त्वचा, अल्सर तथा गैंग्रीन पर आर्सेनिक का प्रभाव – 

आर्सेनिक की त्वचा सूखी, मछली के छिलके के समान होती है, उसमें जलन होती है। फोड़े-फुंसियां आग की तरह जलती हैं। सिफिलिस के अल्सर होते हैं जो बढ़ते चले जाते हैं, फैलते जाते हैं, ठीक नहीं होते, उनमें से सड़ी, बदबूदार शोथ होने के बाद फोड़ा बन जाय और वह सड़ने लगे-गैंग्रीन बनने लगे-फिर आर्सेनिक दवा सही है

(6) श्लेष्मिक झिल्ली पर आर्सेनिक का प्रभाव (आंख, नाक, मुख, पेट, मूत्राशय से जलने वाला स्राव) – आर्सेनिक के रोगी का स्राव जहां-जहां लगता हैं, वहां-वहां जलन पैदा कर देता है। उदाहरणार्थ:
जुकाम में जलन – जिसे जुकाम से पानी बहता हो, जहां-जहां होठों पर लगे वहां जलन पैदा कर दे, नाक में भी जलन करे, नाक छिल जाय, गरम पानी से आराम मिले, वहां इसे ही दी।

‘समयानन्तर’ का सिर-दर्द –

 मलेरिया की तरह आर्सेनिक में ऐसा सिर-दर्द होता है जो हर दो सप्ताह के बाद आता है। रोगी बेचैन रहता है, घबराता है, नवीन रोग में पानी बार-बार पीता है, रोग के पुराना हो जाने पर प्यास नहीं रहती, सिर पर ठंडा पानी डालने से आराम आता है, खुली हवा में घूमना चाहता है, मध्य-रात्रि में 1 या 2 बजे यह पीड़ा शुरू होती है, कभी-कभी दोपहर को 1 से 3 बजे से सिर-दर्द शुरू होकर सारी रात रहता है। समायानन्तर आने वाले इस सिर-दर्द में अन्य लक्षणों को देख कर आर्सेनिक देना लाभकारी है।



पेट में शोथ तथा जलन –

 पेट का अत्यन्त नाजुक होना, एक चम्मच ठंडा पानी पीने से भी उल्टी हो जाना, गर्म पानी से थोड़ी देर के लिये आराम, भोजन-प्रणालिका की ऐसी सूजन कि जो कुछ खाया जाय उसकी उल्टी हो जाय, सब में जलन होना, बाहर से गर्म सेक से आराम मिलना। रोगी इतना बेचैन होता है कि टहलता फिरता है, चैन से बैठ नहीं सकता और अन्त में इतना शिथिल और कमजोर हो जाता है कि पट पड़ जाता है।
(7) समयानन्तर तथा पर्याय-क्रम के रोग – 

रोग का समयानन्तर से प्रकट होना इस औषधि का विशिष्ट-लक्षण है। इसी कारण मलेरिया-ज्वर में आर्सेनिक विशेष उपयोगी है। हर दूसरे दिन, चौथे दिन, सातवें या पन्द्रहवें दिन ज्वर आता है। सिर-दर्द भी हर दूसरे दिन, हर तीसरे, चौथे, सातवें या चौदहवें दिन आता है। रोग जितना पुराना (Chronic) होता है उतना ही उसके आने का व्यवधान लम्बा हो जाता है। अगर रोग नवीन (Acute) है तो रोग का आक्रमण हर तीसरे या चौथे दिन होता है। इस दृष्टि से मलेरिया में चायना की अपेक्षा आर्सेनिक अधिक उपयुक्त है

आर्सेनिक में रोग का ‘पर्याय-क्रम’ –

अनेक रोगों में प्राय: देखा जाता है कि अगर मस्तिष्क के लक्षण प्रकट होते हैं, तो शारीरिक-लक्षण चले जाते हैं, और जब शारीरिक-लक्षण प्रकट होते हैं, तब मानसिक-लक्षण चले जाते हैं। यह बात शरीर तथा मन तक ही सीमित नहीं हैं, इस प्रकार के शारीरिक-लक्षण प्रकट होते हैं, दूसरे प्रकार के शारीरिक-लक्षण लुप्त हो जाते हैं। उदाहरणार्थ, एक स्त्री को सिर पर भारी दबाव प्रतीत होता था, वह इस दवाब को दूर करने के लिये सिर पर कुछ बोझ रख लेती थी। जब सिर का दवाब दूर हो जाता था, तब उसे बार-बार पेशाब जाने की हाजत हो जाती थी। यह एलूमेन से दूर हो गया। एक रोगी को सिर-दर्द होता था, जब सिर-दर्द हटता था, तब दस्त आने लगते थे। यह पीडोफाइलम से दूर हो गया। इस प्रकार दो रोगों के पर्याय-क्रम का अर्थ यह समझना चाहियें कि शरीर में दो रोग एक-साथ हैं, और ऐसी औषधि का निर्वाचन करना चाहिये जो रोगी की दोनों अवस्थाओं पर असर कर सके। अगर इन लक्षणों में आर्सेनिक के लक्षण मौजूद हों, तो इस औषधि का निर्वाचन होंगा, परन्तु लक्षणों के आधार पर हीं, अन्य किसी आधार पर नहीं।


(8) रात्रिकालीन या दोपहर के बाद रोग-वृद्धि (जैसे, दमा) –

 आधी रात के बाद या दोपहर को 1-2 बजे के बीच रोग का बढ़ जाना इसका चरित्रगत लक्षण है। विशेष रूप से दमे में यह पाया जाता है, परन्तु बुखार, खांसी, हृदय की धड़कन-किसी भी रोग में मध्य-रात्रि या दोपहर में रोग का बढ़ना आर्सेनिक का लक्षण है।
(9) सफाई पसंद स्वभाव – रोगी बड़ा सफाई पसन्द होता हैं। गन्दगी या अनियमितता को बर्दाश्त नहीं कर सकता। अगर दीवार पर तस्वीर टेढ़ी लटकी है, तो जबतक उसे सीधा नहीं कर लेता तब-तक परेशान रहता है। जो लोग हर बात में सफ़ाई पसंद करते हैं, कहीं भी गन्दगी देखकर परेशान हो जाते हैं, इस बात में सीमा का उल्लंघन कर जाते हैं, उनका लक्षण इस दवा में पाया जाता है।

;आर्सेनिक औषधि के अन्य लक्षण

* ज्वर – ज्वर में शीत, ताप और स्वेद-ये तीन अवस्थाएं होतीं हैं। आर्सेनिक के ज्वर में शीतावस्था में प्यास नहीं होती, तापावस्था में थोड़ी प्यास होती है, मुँह गीलाभर करने की इच्छा होती है, स्वेदावस्था में खूब प्यास लगती है, जितना पसीना आता है उतनी ही प्यास बढ़ती जाती है। अगर समयान्तर (Periodical) ज्वर हो, मलेरिया हो, तो उक्त-लक्षणों के होते हुए कुनीन की अपेक्षा आर्सेनिक इस ज्वर को जल्दी ठीक कर देता है-ज्वर समयान्तर से आता हो, दूसरे, चौथे दिन आता हो, मध्य-दिन या मध्य-रात्रि में बढ़ता हो, तब तो आर्सेनिक निश्चित औषधि है।

* रक्तस्राव – आर्सेनिक रक्त-स्राव की औषधि है। इसमें भिन्न-भिन्न अंगों से ‘रक्त-स्राव’ होता है। चमकता हुआ, लाल रंग का रुधिर। अगर इस रक्त-स्राव का इलाज न हो, तो कुछ देर बाद जिस अंग से रक्त-स्राव हो रहा है उसकी सड़े अंग की हालत हो जाती है और रुधिर काला, थक्केदार हो जाता है। उल्टी में और टट्टी में ऐसा ही रुधिर जाने लगता है। रक्त-स्राव के कष्ट में से गुजरते हुए रोगी बेचैनी की हालत में से गुजरता हुआ अत्यन्त क्षीणता, दुर्बलता की दशा में पहुंच जाता है, इस दुर्बलता में उसे ठंडा पसीना आने लगता हैं। रक्त-स्राव का ही एक रूप खूनी बवासीर है। इसमें रोगी के मस्सों में खुजली होती है, जलन होती और गर्म सूई का-सा छिदता दर्द होता है। गुदा को सेंकने से या गर्म पानी से धोने से शान्ति मिलती है।
शक्ति तथा प्रकृति – पेट, आंतों तथा गुर्दे की बीमारियों में निम्न शक्ति दी जानी चाहिये, स्नायु-संबंधी बीमारियों तथा दर्द के रोगों में उच्च-शक्ति लाभ करती है। अगर सिर्फ त्वचा के वाह्य-रोग के लिये औषधि देनी हो, तो 2x, 3x देना चाहिये जिसे दोहराया जा सकता है। अन्यथा दमे में 30 शक्ति और पुरानी बीमारी में 200 शक्ति लाभ करती है। औषधि सर्द-प्रकृति के लिये है।




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